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प्राचीन भारत की भौगोलिक पृष्ठभूमि का वर्णन

  • प्राचीन भारत की भौगोलिक पृष्ठभूमि का वर्णन?
  • (Describe the geographical background of        ancient India.)

  • प्राचीन भारत के प्रमुख संचार मार्गों का वर्णन ?  (Describe the main routes of communication in ancient India.) 
  • प्राचीन भारत के वातावरण, निवासी एवं उनकी भाषा का उल्लेख ?(Describe the environment, peoples and languages in ancient India.)
  • उत्तर : 
  • भारतवर्ष की भौगोलिक पृष्ठभूमि : हिमालय से लेकर हिन्द महासागर तक के विस्तृत भू-भाग को अति प्राचीन काल से 'भारतवर्ष' के नाम से जाना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़। कुछ विद्वानों के अनुसार ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भारत के नाम पर यह देश भारतवर्ष कहलाया। ईरानियों ने इस देश को हिन्दुस्तान कहकर सम्बोधित किया और यूनानियों ने इसे इंडिया कहकर पुकारा। प्राचीन साहित्यों में भारत देश को भारत भूमि की संज्ञा दी गयी है। इसे जम्बूद्वीप का एक भाग माना जाता है। भारत को “चतुः संस्थान संस्थितम्" कहा गया है। 'हिन्दू' शब्द भी महान् सिन्धु नदी से निकला है।
  • भू-आकृति (Physiography)किसी भी देश की भौगोलिक स्थिति का उसके इतिहास पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। प्राकृतिक बनावट, जलवायु, भूमि की उर्वरा, खनिज शक्ति आदि किसी भी देश की राजनीतिक घटनाओं, समाज, धर्म एवं व्यवस्था को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती हैं। भारतीय इतिहास भी इसका अपवाद नहीं है। हमारे देश की भौगोलिक स्थिति ने भी इसके इतिहास पर अपना अमिट प्रभाव छोड़ा है। अतः भारतीय इतिहास को समझने के पूर्व इसके भौगोलिक बनावट का अध्ययन आवश्यक हो जाता है। विभाजन के पूर्व भारत एक विशाल देश था जिसमें रूस को छोड़कर सम्पूर्ण यूरोप समा सकता था। इसकी विशालता के कारण ही कई इतिहासकारों ने इसे 'उपमहाद्वीप' (sub-continent) कहा है। इसकी विशालता का इसके इतिहास पर काफी प्रभाव पड़ा है। इससे प्राकृतिक और सामाजिक परिस्थितियों की विविधता उत्पन्न हुई, जिसके कारण भारत एक लघु विश्व के रूप में परिवर्तित हो गया है। उत्तर में हिमालय पर्वत भारतवर्ष का मुकुट है तो दक्षिण में महासागर इसका पद प्रक्षालन करता है। भारत तीन दिशाओं पूरब, पश्चिम और दक्षिण में समुद्र से घिरा हुआ है। उत्तरी पर्वती की भयंकर दुरुहता और दक्षिण के समुद्रों के कारण भारत शेष विश्व रहा। पूरब में पकोई, नागा और सुशाई की पहाड़ियाँ और उनके मने जंगलों ने आवागमन को दुरुह बना दिया हैं!
  • भौगोलिक अध्ययन की दृष्टि से सम्पूर्ण भारत को चार भागों में बाँटा गया - (1) उत्तर पर्वतीय प्रदेश (2) गंगा और सिन्धु के मैदान (3) दक्षिणी पठार और (4) समुद्र तटीय

  •  उत्तर पर्वतीय प्रदेश :  भारत के उत्तर में पूर्व से पश्चिम तक हिमालय एवं अन्य पर्वत श्रेणियाँ फैली हुई है, जिसके अन्तर्गत कश्मीर, कांगड़ा, गढ़वाल कुमायूँ, नेपाल, सिक्किम तथा भूटान जैसे पर्वतीय क्षेत्र हैं। इसके साथ-साथ विशाल हिमालय पर्वत अफगानिस्तान से असम तक विस्तृत दीवार के समान फैला हुआ है। इसकी लम्बाई 1,600 मील है। संसार की कुछ प्रसिद्ध चोटियाँ जैसे एवरेस्ट, गौरीशंकर, कञ्चन आदि इसी शृंखला में है।
  • उत्तर का मैदान : उत्तर का विस्तृत मैदान जिसमें सिन्धु और इसकी सहायक नदियों की तराइयाँ एवं गंगा, यमुना और ब्रह्मपुत्र से सिंचित उपजाऊ भू-भाग सम्मिलित है। यह संसार के अधिकतम उपजाऊ प्रदेशों में से है।।
  • दक्षिणी पठार दक्षिण में विन्ध्यपर्वत के पूर्वी अंश में नर्मदा के स्रोतों के पास से फटकर एक शृंखला नर्मदा के बायें दायें चली गयी है। ताप्ती और महानदी के दक्षिण समुद्र की और बढ़ता हुआ तिकोना पठार 'डेकान' या 'दक्षिण' कहलाता है।
  • समुद्र तटीय प्रदेश : इस तिकोने (Deccan या दक्षिण) के पश्चिमी किनारे को पश्चिमी घाट और पूर्वी किनारे को महेन्द्र पर्वत या पूर्वी घाट कहते हैं। पश्चिमी घाट के उत्तरवाले हिस्से को कोकण, मध्य के हिस्से को कन्नड़ और दक्षिण वाले हिस्से को केरल या मालाबार कहते हैं। पूर्वी घाट के दक्षिणी भाग को कोरोमण्डल (चोलमण्डल) और उत्तरी भाग को कलिग कहते हैं। दक्षिण का पठार कृष्णा नदी द्वारा दो भागों में बँटा हुआ है। उत्तरी हिस्से का पश्चिमी भाग महाराष्ट्र और पूर्वी भाग आन्ध्र कहलाता है। परन्तु ये प्रादेशिक विभाजन प्राचीन अनुश्रुतिगत अथवा प्राचीन साहित्यों में वर्णित विभाजन से मेल नहीं खाते भारत के प्राचीन साहित्य में भारत के पाँच भागों में बटे होने का उल्लेख मिलता है। सिन्धु और गंगा के मध्य मध्यप्रदेश था ब्राह्मणग्रंथों के अनुसार यह भू-भाग सरस्वती नदी से प्रयाग काशी तक और बौद्धग्रन्थों के अनुसार राजमहल तक फैला हुआ था। इसी क्षेत्र का पश्चिमी भाग ब्रहार्थि देश कहलाता था। पंतजलि ने इस समय भू-भाग को आर्यावर्त कहा है। स्मृति में आर्यावर्त को हिमालय और विन्ध्यपर्वत के मध्य में बतलाया गया है। पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार मध्यप्रदेश के उत्तर में 'उत्तरापथ' या 'उदीच्य', इसके पश्चिम में अपरान्त' या प्रतीच्य' इसके दक्षिण में 'दक्षिणापथ' या 'दक्कन' और इसके पूरब में 'पूर्वदेश' या 'प्राप्य' थे। 'उत्तरापथ' कभी-कभी सम्पूर्ण उत्तर भारत के लिए और 'दक्षिणापथ' दक्कन के भू-भाग के लिए व्यवहृत किया जाता था। सुदूर दक्षिण में तमिल देश था। इस प्रकार कहा जा सकता है। कि भौगोलिक दृष्टि से कश्मीर से लंका की सीमा तक और कश्मीर से असम तक सम्पूर्ण भू-भाग सही अर्थ में भारतवर्ष था जिसका वर्णन हमें पुराने ग्रंथों में मिलता है।
  • आवागमन के प्रमुख मार्ग (Major Routes of Communication) : तीन ओर से समुद्र से घिरा होने के कारण भारत के लोग अति प्राचीन काल से ही सामुद्रिक मार्गों से पूर्णतया परिचित थे और सामुद्रिक या नौयात्रा में काफी बढ़े हुए थे। भारत का व्यापार अफ्रीका, अरब, ईरान, हिन्द-चीन, चीन आदि देशों से होता था। रोम के साथ तो इसके काफी दिनों तक व्यापारिक सम्बन्ध बने रहे। इस प्रकार विस्तृत समुद्र के कारण पूर्वी एवं पश्चिमी देशों से पर्याप्त मात्रा में व्यापार होता था। अपनी प्राकृतिक बनावट के कारण भारत शेष विश्व के देशों से बिल्कुल अलग था। प्राचीन काल में पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त से भारत पर आक्रमण होता था, क्योंकि उधर ही बोलन और खैबर के दरें थे, जो अब पाकिस्तान में हैं। आर्यों के समय से मध्यकाल तक इसी रास्ते से भारत पर आक्रमण होते रहे। 1498 ई. में वास्को डी गामा के नेतृत्व में सर्वप्रथम पुर्तगालियों का आगमन समुद्र के रास्ते पूर्वी तट पर हुआ और बाद में उसी रास्ते से डच, फ्रांसीसी और अंगरेज आये। प्राचीन भारत में कतिपय ऐसे राजमार्ग भी थे जिनका व्यापारिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व था। एक प्रधान राजमार्ग वह था, जो सिन्धु नदी के पश्चिम से चलकर पंजाब की नदियों को लाँधता हुआ कुरुक्षेत्र से होकर गंगा तक जाता था और फिर वाराणसी के पास गंगा के दाहिने किनारे से बंगाल के बन्दरगाहों तक जाता था। उस मार्ग के दो और बड़े नाके थे एक तो सिन्धु और झेलम नदी के बीच और दूसरा बिहार बंगाल की सीमा पर मुंगेर से राजमहल तक हिमालय से नीचे अवध से असम तक एक अलग मार्ग था और उधर हिमालय से पार जानेवाले सीमान्त मार्ग भी थे। कश्मीर से असम तक प्रत्येक प्रदेश में से हिमालय के घाटों पर चढ़कर तिब्बत में उतरने वाले अनेक रास्ते थे। विन्ध्यपर्वत को लाँधकर दक्षिण जाने का रास्ता था। मालवा से एक मार्ग पश्चिमी तट के बन्दरगाहों तक जाता था। प्रयाग से भी दक्षिण जाने का मार्ग था।नदियों के मार्ग से भी लोग यात्रा करते थे। नदियों के किनारे बड़े-बड़े नगरों का विकास हुआ। आवागमन की इस सुविधा ने विषम प्राकृतिक बनावट वाले भारतवर्ष की एकता को जीवित रखा।
  • वातावरण (Environment) : भौगोलिक विभिन्नताओं के बावजूद भारतवर्ष एक सम्पूर्ण देश रहा है। भारत की मौलिक एकता यहाँ की विभिन्नताओं में निहित है। विभिन्न जातियों द्वारा विकसित एवं प्रतिपादित सभ्यता पर आधारित भारत को यह मौलिक एकता संसार में अद्वितीय है। प्रेम और शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व पर यहाँ की एकता कायम है। प्रकृति ने इसको भौगोलिक इकाई को इस दृढ़ता से बनाया है कि यह देश के आन्तरिक विभाजनों को अच्छी तरह ढंक देती है। 'विष्णुपुराण' में इसकी एकता इस प्रकार वर्णित है— "समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण में जो देश है, वह भारत नाम का खण्ड कहलाता है और वहाँ के लोग भारत को सन्तान कहलाते हैं।" आध्यात्मिक पण्डितों, राजनेताओं तथा कवियों और साहित्यकारों के मानस में एकता की यह भावना सर्वदा विद्यमान थी। हिमालय से लेकर समुद्र तक विस्तृत सहस्र योजन भूमि को एक ही सार्वभौम सम्राट् का राज्य होने योग्य कहा गया है। प्राचीन ग्रन्थों में ऐसे अनेक शासकों का उल्लेख मिलता है जिन्होंने भारत के विभिन्न प्रदेशों को एक सूत्र में बाँधने की चेष्टा की। वस्तुतः भारत की भौगोलिक एकता इसके सांस्कृतिक जीवन से परिलक्षित होती है। भारत और भारतीय संस्कृति में वही सम्बन्ध है, जो आत्मा शरीर में है। प्राकृतिक और भौगोलिक विशेषताओं, ऐतिहासिक अनुभवों, धार्मिक विचारों और राजनीतिक आदर्शों के कारण भारतवर्ष में एकता के भाव का विकास हुआ और इन्हीं कारणों से यह स्थिर और दृढ़तर होता गया। समस्त विभिन्नताओं के बीच हिमालय से लेकर कुमारी अन्तरीप तक एकता की धारा स्पष्

















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