मनोविज्ञान ( जेनरल एवं सबसीडियरी)
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प्रश्न : मनोविज्ञान क्या है? इसके लक्ष्य एवं विषय वस्तु की वि मनोविज्ञान ( जेनरल एवं सबसीडियरी ) वेचना करें। (What is Psychology? Discuss its goals and subject-matter.)
अथवा"मनोविज्ञान एक समर्थक विज्ञान है जो प्राणी की अनुभूतियों एवं व्यवहारों का अध्ययन वातावरण के सम्पर्क में करता है। " व्याख्या करें ।
("Psychology is positive science which studies the experience in relation to the environment." Explain.)
अथवा
क्या मनोविज्ञान चेतन अनुभूति का विज्ञान है या व्यवहार का या दोनों का ? विवेचना करें।
(Is Psychology a science of conscious experience or behaviour or of both.)
उत्तर : मनोविज्ञान अँगरेजी शब्द 'Psychology' का हिन्दी रूपान्तर है। यह 'Psychology' शब्द लैटिन भाषा के दो शब्दों (Psyche+ Logos) के मेल से बना हुआ है। 'Psyche' का अर्थ है 'Soul' (आत्मा) तथा 'Logos' का अर्थ to discuss' (विचार-विमर्श करना) अर्थात् ऐसा विज्ञान जो आत्मा के बारे में विचार विमर्श करे। इसलिए दार्शनिकों ने इसे आत्मा का विज्ञान (Science of Soul) - कहा था। परन्तु यह परिभाषा अधिक दिनों तक मान्य नहीं रह सकी। पहली बात तो यह है
कि आत्मा के स्वरूप एवं प्रकृति को दार्शनिक चिरकाल तक निश्चित नहीं कर सके। दूसरी बात यह कि आत्मा पर वैज्ञानिक अध्ययन सम्भव नहीं हो सका। कुछ अन्य दार्शनिकों ने इसे मन का विज्ञान (Science of mind) के रूप में इसकी व्याख्या करने की असफल चेष्टा की। परन्तु आत्मा की तरह मन भी एक अमूर्त वस्तु है, जिस पर प्रयोगात्मक अध्ययन सम्भव नहीं हो सका।
अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम काल में विज्ञान के विकास ने मनोविज्ञान के अध्ययन विषय को बहुत अधिक प्रभावित किया। इसके परिणामस्वरूप सन् 1879 ई. में बुण्ड (Wundt) नामक मनोवैज्ञानिक ने 'लिपजिग' नामक स्थान में मनोविज्ञान की प्रथम प्रयोगशाला खोली। अब मनोविज्ञान ने एक स्वतंत्र विज्ञान का रूप ले लिया। इस प्रयोगशाला में प्राणी की चेतन अनुभूति का अध्ययन शुरू किया गया। इस आधार पर मनोविज्ञान को चेतन अनुभूति का विज्ञान (Science of conscious experience ) कहा गया तथा इसके अध्ययन के लिए जिस विधि का उपयोग किया गया उसे अन्तर्निरीक्षण विधि (Introspection method) कहा गया परन्तु मनोविज्ञान की यह परिभाषा भी संतोषजनक सिद्ध नहीं हुई। यह परिभाषा के अध्ययन क्षेत्र को सीमीती करती है। फ्रायड (Freud) के अनुसार मनुष्य की अनुभूति केवल चेतन नहीं होती है। बल्कि अवचेतन और अचेतन भी होती है। मन का छोटा सा हिस्सा चेतन है तथा बहुत बड़ा हिस्सा अवचेतन या अचेतन है। दूसरी बात चेतना का अध्ययन अन्तर्निरीक्षण विधि द्वारा ही होता है, जिसमें अनेक त्रुटियाँ हैं। अन्तर्निरीक्षण विधि द्वारा मात्र सामान्य व्यक्तियों का ही अध्ययन सम्भव हो पाता है। बच्चे, पागल तथा अन्य प्राणियों का अध्ययन इस विधि से संभव नहीं है।
इन त्रुटियों को मद्देनजर रखते हुए व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों ( Behaviourists) ने मनोविज्ञान में अनुभूति के अध्ययन की आलोचना की तथा मनोविज्ञान की परिभाषा देते हुए बतलाया कि "मनोविज्ञान व्यवहार का अध्ययन करने वाला तथ्यात्मक विज्ञान है" (Psychology is the the positive science of behaviour) । उनका कहना है कि मनुष्य के वाक्य व्यवहार को देखकर उसकी अनुभूति का पता चलाया जा सकता है, जैसे यदि एक व्यक्ति रो रहा है तो उसके इस व्यवहार को देखकर हम कह सकते हैं कि उसे दुःख की अनुभूति हो रही है।
इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति हँस रहा है तो उसे इस व्यवहार को देखकर हम समझ जाते हैं कि उसे सुख की अनुभूति हो रही है। लेकिन व्यवहारवादियों की यह परिभाषा भी अधिक सन्तोषजनक नहीं मानी गयी। चूंकि अनुभूति एक व्यक्तिगत चीज है इसलिए व्यवहार द्वारा इसका पता चलाना संभव नहीं है। व्यवहार का भी अपने आप में कोई अर्थ नहीं होता है। इसकी भी व्याख्या विभिन्न अनुभूतियों के आधार पर लोग करते हैं। उदाहरण के लिए किसी का चिल्लाना अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता, लेकिन अनुभव ने हमें सिखाया है कि लोग दुःख में चिल्लाते हैं। साथ ही हमारे व्यवहार होते हैं जैसे थर-थर काँपना या आँसू आना व्यक्ति भय तथा क्रोध दोनों ही स्थिति में थर थर काँपता है। इसी प्रकार अत्यधिक दुःख मा सुख के अनुभव से आँसू आते हैं।
इस तरह हम देखते हैं कि न तो केवल अनुभूति के आधार पर मनोविज्ञान की सन्तोषजनक परिभाषा दी जा सकती है और न केवल व्यवहार के आधार पर ही इसे परिभाषित किया जा सकता है। इसलिए मनोवैज्ञानिकों ने मनोविज्ञान की व्यापक परिभाषा देने के लिए अनुभूति (Experience) और व्यवहार (Behaviour) दोनों को ही सम्मिलित किया है। मनोविज्ञान की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि "मनोविज्ञान एक यथार्थवादी (समर्थक) विज्ञान है जो अनुभूति और व्यवहार का अध्ययन अनुभूति के माध्यम से करता है।" (Psychology is the positive science of experience and behaviour interpreted in terms of experience.)
इस परिभाषा का विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता है:
(क) मनोविज्ञान एक यथार्थवादी विज्ञान (Positive science) है :
मनोविज्ञान अपने विषय वस्तु का अध्ययन ज्यों-का-त्यों करता है। इसमें कोई आदर्श निरूपण नहीं होता। इसे 'चाहिए' और 'नहीं चाहिए' से कोई मतलब नहीं है। यह मनोविज्ञान संबंधी विषय वस्तु का क्रमबद्ध नियंत्रित तथा निष्पक्ष अध्ययन करता है।
(ख) अनुभूति (Experience) का अध्ययन :
प्राणी अपने जीवन में विभिन्न : प्रकार की वाह्य एवं आन्तरिक उत्तेजनाओं (Stimuli) के बीच घिरा रहता है और उसे विभिन्न परिवर्तनशील अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। इन परिवर्तनशील अवस्थाओं अर्थात् परिस्थितियों से प्राणी में उत्पन्न प्रभावों (effects) को ही अनुभूति कहते हैं। ये अनुभूतियाँ तीन प्रकार की होती हैं-
(i) चेतन अनुभूति (ii) अवचेतन अनुभूति (iii) अचेतन अनुभूति । इस प्रकार अनुभूति शारीरिक तथा मानसिक भी हो सकती है। मनोविज्ञान में इन सभी प्रकार की अनुभूतियों का अध्ययन होता है ।।
(ग) व्यवहार (Behaviour) का अध्ययन :
व्यवहार वह शारीरिक क्रिया है. जिसे हम खुली नजर या यंत्र के सहारे देख सकते हैं। प्राणी के जिन क्रियाओं को खुली नजर से देखा जाय उसे बाह्य व्यवहार (External behaviour) कहा जाता है जैसे दौड़ना, हँसना, रोना इत्यादि। जिन शारीरिक क्रियाओं का ज्ञान यंत्रविशेष की पकड़ से प्राप्त होता हो उन्हें आन्तरिक व्यवहार (Internal behaviour) कहा जाता है जैसे हृदय की धड़कन, रक्तचाप, साँस की गति इत्यादि। मनोविज्ञान में इन सभी व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है।
( घ) अध्ययन का माध्यम पूर्व अनुभूति :
मनुष्य की अनुभूति तथा व्यवहार के अध्ययन के लिए अनुभूति को माध्यम माना जाता है। अर्थात् हम अपनी अनुभूति के आधार पर ही दूसरों के व्यवहार को देखकर उसकी अनुभूति का पता चलाते हैं। जैसे हमारे मुँह में कोई कड़वी चीज पड़ जाती है तो हम अपने मुँह को विचित्र ढंग से विचकाते हैं तथा एक विचित्र ढंग का मौखिक परिवर्तन होता है। इस तरह से हम अपनी इस व्यक्तिगत अनुभव का सहारा लेते हुए दूर से किसी बच्चे को मुँह में उठाकर कोई वस्तु खा लेने के बाद मुँह विचकाते हुए देखते हैं तो उसके इस व्यवहार को देखकर हम कहते हैं कि उस बच्चे ने कोई कड़वी चीज खा ली है। अतः यह स्पष्ट है कि मनुष्य को अनुभूति और व्यवहार के ययन के लिए अनुभूति एक माध्यम है।
कुछ अन्य मनोवैज्ञानिकों ने मनोविज्ञान को परिभाषा देते हुए कहा है कि "मनोविज्ञान एक यथार्थवादी विज्ञान है जो प्राणियों के वातावरण में हुई क्रियाओं का अध्ययन करता है।" (Psychology is the positive science which studies the activities of living organism in relation to its environment) हमारा कोई भी व्यवहार शून्य में नहीं होता। वातावरण से तात्पर्य है वहाँ की हवा, प्रकाश, तापक्रम, उपस्थित व्यक्ति आदि से है। हमें सदा वातावरण का ख्याल रखकर ही व्यवहार करना पड़ता है। वातावरण के प्रति अनुकूल व्यवहार को ही अभियोजन कहा गया है। इसी बात को ध्यान में रखकर मन्न (Munn) ने इसे अभियोजनशीलता का विज्ञान कहा है (Psychology is the science of adjustability)। वास्तव में मन या किसी भी प्राणी का व्यवहार वातावरण में सम्पर्क स्थापित करने के लिए ही होता है। इसी बात को डॉ. मोहसिन ने अपने शब्दों में कहा है "मनुष्य के स्वभाव, उसके ज्ञान और कार्य है करने की विधियों का अध्ययन मनोविज्ञान है।"
मनोविज्ञान का क्षेत्र (Scope of Psychology) :
मनोविज्ञान के विषय वस्तु के अन्तर्गत निम्न बातें आती हैं जो कि इसके अध्ययन क्षेत्र को स्पष्ट करती है। प्रमुख बातें निम्न हैं। :
1. मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन
2. शारीरिक क्रियाओं का अध्ययन
3. संवेगात्मक क्रियाओं का अध्ययन
4. पशु व्यवहार का अध्ययन
5. शारीरिक बनावट और उसकी क्रियाओं का अध्ययन
6. व्यक्ति की विभिन्न अवस्थाओं का अध्ययन
7. चेतन के विभिन्न स्तरों का अध्ययन
8. व्यक्तिगत विभिन्नताओं का अध्ययन
9. वंशानुक्रम एवं वातावरण का अध्ययन
10. बाह्य उत्तेजनाओं का अध्ययन
11. जन्मजात एवं अर्जित प्रेरकों का अध्ययन
12. असामान्य व्यवहार का अध्ययन
13. विभिन्न प्रकार के साहित्य का अध्ययन
14. सीखने तथा स्मृति की प्रक्रियाओं का अध्ययन
15. सामाजिक व्यवहार का अध्ययन
16. लोक व्यवहार को अध्ययन
17. व्यक्ति तथा जाति की उत्पत्ति तथा विकास का अध्ययन
18. मापन सम्बन्धी अध्ययन
19. अलौकिक व्यवहार का अध्ययन
20. व्यावहारिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का अध्ययन इसके अन्तर्गत निम्न बातें आती हैं ---
(i) शिक्षा
(ii) व्यावसायिक निर्देशन
(iii) उद्योग और व्यापार
(iv) कार्मिक वर्ग प्रशासन
(v) मानसिक रोग
(vi) अपराध और कानून |
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि आज मनोविज्ञान मानव जीवन के हर क्षेत्र में समाहित है तथा कोई भी मानव, मनोविज्ञान से अछूता नहीं है। जैसा कि हम जानते हैं मनोविज्ञान प्राणी और उसके वातावरण के बीच पारस्परिक क्रियाओं का अध्ययन करता है
प्रश्न: क्या मनोविज्ञान चेतन अनुभूति का विज्ञान है या व्यवहार का या दोनों का ? इसकी विवेचना कीजिए।
(Is Psychology a science of conscious experience or behaviour or of both. Discuss.)
उत्तर: मनोविज्ञान पहले दर्शनशास्त्र का ही एक अंग था। इसलिए दार्शनिकों ने अपने विचारों के अनुसार मनोविज्ञान की परिभाषाएँ अलग-अलग रूप से दी थीं, जो कि आगे चलकर विज्ञान की कसौटी पर सत्य और विश्वसनीय प्रमाणित नहीं हुई। वैज्ञानिक युग में मनोविज्ञान भौतिकशास से बहुत अधिक प्रभावित हुआ। परिणामस्वरूप मनोविज्ञान में 1879 में लाइपजिंग प्रयोगशाला में मनुष्य की चेतन अनुभूति पर अध्ययन प्रारम्भ हुआ और इस तरह से मनोविज्ञान का संग दर्शनशास्त्र से छूट गया।
चेतन अनुभूति का विज्ञान : (Woundt), टाइटेहर (Titehner), कैदल (Cattle) जैसे प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिकों ने मनोवैज्ञानिक प्रयोगों में अपना सहयोग प्रदान किया। लाइपजिंग की इस प्रयोगशाला में मनुष्य की अनुभूति को किस प्रकार से वातावरण के अनेक उत्तेजक प्रभावित करते हैं, इसकी जाँच प्रारम्भ की गयी। इन मनोवैज्ञानिकों को, जिन्होंने मनुष्य की चेतन अनुभूति के अध्ययन में अभिरुचि प्रकट की, स्ट्रक्चरलवादी (Structuralists) कहा गया। इन्होंने मनुष्य की चेतन अनुभूति का अध्ययन किया और मनुष्य की चेतन अनुभूति की जाँच के लिए जिस विधि का उपयोग किया उसे अन्तर्निरीक्षण विधि (Introspection method) कहा जाता है। 'Introspection' दो शब्दों से बना है- Inter (आन्तरिक) Inspection (निरीक्षण)। अत: इसका अर्थ अपनी सभी चेतन अनुभूतियों का निरीक्षण करना होता है, (To look within one-sclf)। इस तरह से अन्तर्निरीक्षण विधि द्वारा मनुष्य की चेतन अनुभूति की जाँच की गयी। प्रयोगों के आधार पर स्वीकार किया गया कि मनोविज्ञान चेतन अनुभूति का विज्ञान है (Psychology is a science of conscious experience)
मनोविज्ञान में अवचेतन एवं अचेतन अनुभूतियों का भी अध्ययन लेकिन मनोविज्ञान की यह परिभाषा भी संतोषजनक नहीं सिद्ध हुई। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक फ्रायड ने अपने चैकत्सिक निरीक्षण के आधार पर यह साबित किया कि मनुष्य का मस्तिष्क तीन स्तरों में बँटा हुआ है-(i) चेतन (Conscious), (ii) अवचेतन (Sub-conscious) (iii) अचेतन (Unconscious) | फ्रायड ने मन के इस विभाजन को, मन का आकारात्मक पक्ष (Topographical aspect of mind) की
संज्ञा दी। इसी आधार पर फ्रायड ने बताया कि मनुष्य की अनुभूति केवल चेतन नहीं होती है, बल्कि चेतन और अचेतन भी होती है। चेतन अनुभूति उस अनुभूति को कहा जाता है। जिसकी हमें तत्काल जानकारी होती है। अवचेतन अनुभूति वह अनुभूति है जिसकी जानकारी हमें सरल ढंग से नहीं होती है, कुछ प्रयास करने और मनोवैज्ञानिक विधियों का सहारा लेने पर होती है। जैसे, एक विद्यार्थी क्रमबद्ध रूप से परीक्षा में शेरशाह के शासन के सम्बन्ध में दस बातें याद करता है। वह लगातार एक से लेकर छः बातें तो लिख पाता है पर सातवीं बात उसे याद नहीं पड़ती है, वह उसके लिए स्थान छोड़ देता है और पुनः आठ से लेकर दस बातें तक लिख देता है। लेकिन परीक्षा भवन से बाहर निकलने पर उसे सातवीं बात सहसा याद हो आती है। अब प्रश्न यह उठता है कि सातवीं बात परीक्षा भवन में उसके मस्तिष्क के कौन-से भाग में थी? हम आसानी से कह सकते हैं कि उस समय यह बात उसके चेतन मन के स्तर से अलग थी। उसके मन के अवचेतन (Sub-conscious) स्तर पर थी। कुछ मनोवैज्ञानिकों ने 'Sub-conscious' को 'Fore-conscious' या 'Margin of consciousness' की संज्ञा दी है।
इसी प्रकार अचेतन (Unconscious) अनुभूति का सम्बन्ध मन के अचेतन स्तर से होता है। हमारी चेतन अनुभूतियाँ इच्छाएँ, कामनाएँ आदि सामाजिक प्रतिरोध (Social censorship) के कारण दमित होकर मन के उस अचेतन स्तर में चली जाती हैं। लेकिन ये अनुभूतियाँ हमारे मन के अचेतन स्तर में जाकर भी बिल्कुल निष्क्रिय नहीं हो जाती हैं बल्कि ये हमेशा मनुष्य के चेतन मन में आने का प्रयास करती रहती हैं। ये अनुभूतियाँ, जब सामाजिक प्रतिरोध को कमजोर पाती हैं या जिस समय मनुष्य सो जाता है, उस समय ये सपनों के माध्यम से प्रकट होती हैं। चूँकि अचेतन मन की ये इच्छाएँ अनैतिक, असामाजिक और आक्रामिक होती हैं, इसीलिए चेतन मन इन्हें स्वीकार नहीं करता है। लेकिन, अचेतन मन में बसी हुई ये इच्छाएँ बहुत ही शक्तिशालिनी होती हैं, और मनुष्य के व्यवहार पर इनका बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। इसीलिये अचेतन अनुभूतियों का, मनुष्य के व्यवहार के अध्ययन में, एक विशेष महत्त्व होता है। इस तरह यह कहना उचित नहीं होगा कि मनोविज्ञान केवल चेतन अनुभूतियों का ही विज्ञान है।
व्यवहार का विज्ञान: जब मनोविज्ञान की इस परिभाषा की मान्यता धुंधली पड़ गयी तो व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों ने अनुभूति की व्याख्या करते हुए बताया कि, "अनुभूति एक मानसिक प्रक्रिया है जो वातावरण में उपस्थित उत्तेजकों के प्रभाव से उत्पन्न होती है। इस तरह से उन्होंने यह बताने का प्रयत्न किया कि अनुभूति एक व्यक्तिगत चीज है जिसका अध्ययन प्रत्यक्ष रूप से करना सम्भव नहीं है। इसलिये व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों ने मनोविज्ञान में अनुभूति के अध्ययन की आलोचना की है और मनोविज्ञान की परिभाषा देते हुए बताया है कि “मनोविज्ञान व्यवहार का विज्ञान है" (Psychology is science of behaviour ) । व्यवहार की परिभाषा देते हुए मनोवैज्ञानिकों ने बताया है कि व्यवहार एक प्रतिक्रिया (Response) है जो वातावरण में उपस्थित उत्तेजकों के प्रभाव से उत्पन्न होती है। जब प्राणी किसी विशेष वातावरण या वस्तु के सम्पर्क में आता है तो वह कुछ न कुछ विशेष प्रकार की शारीरिक क्रिया करता है। इसे ही Response या व्यवहार कहा जाता है और इसीलिए व्यवहार दो प्रकार के होते हैं-
(i) वाह्य व्यवहार (External behaviour), (ii) आन्तरिक व्यवहार (Internal behaviour) । दौड़ना, उछलना, कूदना, रोना, आदि वाह्य व्यवहार के उदाहरण हैं। दूसरे शब्दों में वाह्य व्यवहार ऐसे व्यवहार को कहते हैं, जिसे हम खुली नजरों से देख सकते हैं। इसी प्रकार से रक्तचाप, साँस की गति, पाचन क्रिया, हृदय की धड़कन आदि आन्तरिक व्यवहार के उदाहरण हैं। दूसरे शब्दों में आन्तरिक व्यवहार उस व्यवहार को कहा जाता है जिसका निरीक्षण किसी यंत्र के सहारे ही किया जा सके यानी प्रत्यक्ष रूप से सबके द्वारा न देखा जा सके। इस तरह से व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों ने मनोविज्ञान की परिभाषा देते हुए बताया है कि मनोविज्ञान, व्यवहार का यथार्थ (Positive) विज्ञान है। उनका कहना है कि मनुष्य के बाह्य व्यवहार को देखकर उसकी अनुभूति का पता चलाया जा सकता है; जैसे, यदि एक व्यक्ति से रहा है, तो उसके इस व्यवहार को देखकर हम कह सकते हैं कि उसे दुःख की अनुभूति हो रही है। इसी प्रकार से यदि कोई व्यक्ति हँस रहा है तो उसके इस व्यवहार को देखकर हम समझ जाते हैं कि उसे सुख की अनुभूति हो रहा है। इस तरह से व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों ने यह नतीजा निकाला कि अनुभूति का पता प्राणी के व्यवहार को देखकर किया जाता है।
लेकिन व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों की यह परिभाषा भी अधिक संतोषजनक नहीं मानी गयी। चूँकि, अनुभूति एक व्यक्तिगत चीज है इसलिए व्यवहार द्वारा इसका पता चलाना संभव नहीं है। कभी-कभी ऐसा देखा गया है कि मेले में ग्रामीण स्त्रियाँ एक दूसरे से गले मिल कर रोती हैं। दूसरों को उन्हें दूर से देखकर यह आभास होता है कि ये स्त्रियाँ दुःख के कारण रो रही हैं पर वास्तव में ऐसी बात नहीं होती। उनका यह रोना सुख का रोना होता है क्योंकि वे मेले में अपने बिछुड़े साथियों से मिलती हैं और उन्हें इससे खुशी होती जबकि साधारणतः रोना दुःख की अनुभूति का परिचायक है। इसी तरह जब तक निरीक्षणकर्ता को स्वयं कोई अनुभव न हुआ है और उसके अनुरूप व्यवहार का ज्ञान उसने प्राप्त न किया हो तो वह किसी व्यवहार का अर्थ समझ भी नहीं सकता। उदाहरण के लिये अगर किसी व्यक्ति के गर्म तवा पर हाथ पड़ने पर क्या अनुभूति होती है या वह क्यों अपना हाथ उठा लेता है इसके बारे में निरीक्षक को खुद जानकारी न हो तो वह किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अचानक हाथ उठाये जाने वाले व्यवहार का कोई अर्थ नहीं लगा सकता। अतः सिर्फ व्यवहार का ही अध्ययन करने से अनुभूति के बारे में जानकारी नहीं प्राप्त की जा सकती।
अनुभूति एवं व्यवहार दोनों का अध्ययन : इस तरह से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि न तो केवल अनुभूति के आधार पर मनोविज्ञान की संतोषजनक परिभाषा दी जा सकती है और न केवल व्यवहार हो को मानकर मनोविज्ञान की परिभाषा दी जा सकती है। इसलिये यह जरूरी है कि मनोविज्ञान की व्यापक परिभाषा देने के लिये, 'अनुभूति' ( Experience) व्यवहार' (Behaviour) दोनों को ही सम्मिलित किया जाय। इसीलिये मनोवैज्ञानिकों ने मनोविज्ञान की पूर्ण परिभाषा देते हुए कहा है कि "मनोविज्ञान वह समर्थक विज्ञान है जो व्यक्ति के व्यवहार और अनुभूति का अध्ययन अनुभूति के माध्यम से करता है" (Psychology is a positive science of experience and behaviour, interpreted in terms of experience) |
मनुष्य की अनुभूति को व्यवहार के लिए अनुभूति को माध्यम माना जाता है। अर्थात् हम अपनी अनुभूति के ही आधार पर दूसरों के व्यवहार को देखकर उनकी अनुभूति का पता चलाते हैं। जैसे, जब हमारे मुँह में कोई कड़वी चीज पड़ जाती है तो हम अपने मुँह को विचित्र ढंग से बिचकाते हैं और हमारे अन्दर एक विशेष ढंग का मौखिक परिवर्तन होता है। इस तरह से हम अपनी इस व्यक्तिगत अनुभूति का सहारा लेते हुए दूर से किसी बच्चे को मुँह में उठाकर कोई वस्तु खा लेने के बाद मुँह बिचकाते हुए दूर से देखते हैं तो उसके इस व्यवहार को देखकर हम कहते हैं कि उस बच्चे ने कोई कड़वी चीज खा ली है। इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य की अनुभूति और व्यवहार के अध्ययन के लिये अनुभूति एक माध्यम है और इस तरह से मनोविज्ञान की परिभाषा में अनुभूति और व्यवहार दोनों ही का अध्ययन आवश्यक है। इसलिये मनोविज्ञान, केवल अनुभूति का ही विज्ञान नहीं है बल्कि अनुभूति और व्यवहार दोनों ही का विज्ञान है।
प्रश्न : मनोविज्ञान की प्रयोगात्मक विधि की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिये। (Critically explain experimental method of Psychology.)
अथवा
प्रयोगात्मक विधि की व्याख्या करें। इसके गुण-दोषों को बतायें। (Explain the experimental method. Discuss its merits and demerits.)
अथवा
प्रयोगात्मक विधि क्या है? मनोविज्ञान के प्रयोग के लिए आवश्यक शर्तों की स्पष्ट व्याख्या करें। (What is experimental method? Explain clearly conditions for experiments in Psychology.)
अथवा
प्रयोगात्मक विधि के गुण एवं अवगुणों का विवेचना कीजिये। (Discuss the merits and demerits of the experimental method.)
उत्तर : निरीक्षण विधि की त्रुटियाँ आरम्भ में मनोविज्ञान का आलोच्य विषय 'आत्मा' था तथा 'आत्मा' के अध्ययन के लिए एकमात्र उपयुक्त विधि अन्तर्निरीक्षण (Introspection) मानी जाती थी। परन्तु 1913 में मनोविज्ञान के नये युग का पर्दापण हुआ जब मनोविज्ञान में व्यवहारवाद (Behaviourism ) का जन्म हुआ। व्यवहारवाद केजन्मदाता वाट्सन (Watson) महोदय ने बताया कि मनोविज्ञान व्यवहार का विज्ञान है। (Psychology is science of behaviour)
इसके साथ ही मनोविज्ञान की अध्ययन विधि में भी परिवर्तन हुआ। अब अन्तर्निरीक्षण विधि की जगह वस्तुनिष्ठ निरीक्षण (Objective observation) ने ले ली। लेकिन वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि भी आलोचना की शिकार हुई। इस पर आक्षेप करते हुए यह बताया गया कि इस विधि के माध्यम से व्यवहार का अध्ययन भले ही किया जा सकता है, लेकिन यह विधि अनुभूति को समझने में पूर्णरूपेण सहायक नहीं हो सकती जबकि मनोवज्ञान का मुख्य उद्देश्य अनुभूति का ज्ञान प्राप्त करना है।
प्रयोगात्मक विधि की अनिवार्यता : ऊपर के विश्लेषण से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अन्तर्निरीक्षण और वस्तुनिष्ठ निरीक्षण (Introspection and objective observation) दोनों ही विधियाँ त्रुटिपूर्ण हैं। दूसरे शब्दों में ऊपर लिखित दोनों विधियों से मनोविज्ञान के आलोच्य विषय का अध्ययन भले ही किया जाय, लेकिन इसमें वैज्ञानिकता नहीं आ सकती है। अतः मनोविज्ञान एक विज्ञान कहलाने का दावा नहीं कर सकता है। ऐसी हालत में मनोविज्ञान के आलोच्य विषय (Subject-matter) के अध्ययनार्थ एक ऐसी विधि का होना जरूरी है जिसका स्वरूप वैज्ञानिक हो।
यह एक गौरव की बात है कि आज अन्य विज्ञानों की तरह मनोविज्ञान भी अपने आलोच्य विषय का अध्ययन प्रयोगात्मक विधि (Experimental method) की सहायता से करता है। मनोविज्ञान के अन्दर सर्वप्रथम प्रयोगात्मक विधि का प्रयोग उण्ट (Wundt) महोदय द्वारा किया गया। उन्होंने 1879 में लाइपजिंग (Lcipzing) में सबसे पहले मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला (Psychological laboratory) की स्थापना की तथा मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन प्रयोगशाला की नियंत्रित अवस्था में किया।
प्रयोगात्मक विधि क्या है : टिचनर (Tichner) ने इस विधि पर अपना विचार व्यक्त किया है कि "Experiment is simply an ingenous system for bringing introspection and observation under control. अर्थात् अन्तर्निरीक्षण और वस्तुनिष्ठ निरीक्षण कियों का प्रयोग नियंत्रित अवस्था में करना ही प्रयोग है।
अतः इनके अनुसार प्रयोगात्मक विधि अन्तर्निरीक्षण और वस्तुनिष्ठ निरीक्षण का परिमार्जित रूप है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि टिचनर महोदय ने प्रयोग के स्वरूप को स्पष्ट करने का प्रयास किया है, लेकिन इस प्रयास में इन्हें आंशिक सफलता ही प्राप्त हुई है। अतः प्रयोगात्मक विधि के स्वरूप को और स्पष्ट रूप से समझने के लिये दूसरे मनोवैज्ञानिकों के विचारों से अवगत होना जरूरी है।
इंजिल (Angell) : प्रयोग के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए बताते हैं कि "Experiment consists in making observation of phenomenon under conditions control, so that one may know just what factors are at work in producing the results observed", अर्थात् इंजिल के अनुसार प्रयोग का सम्बन्ध उस निरीक्षण से है जो नियंत्रित अवस्था में होता है। इसके साथ ही वे इस विधि
की विशेषता पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि इसके द्वारा प्राप्त निष्कर्ष की सत्यता की जाँच प्रयोग को दुहराकर की जा सकती है।
ग्रीनवुड (Greenwood) : ने प्रयोगात्मक विधि के सम्बन्ध में बताया है "An experiment is the proof of hypothesis which seeks to link up two factors into a causal relationship through the study of contrasting situationis which have been controlled on all factors except the one of interest, the latter being either the hypothetical cause or hypothetical effect."
ग्रीनवुड द्वारा दी गयी परिभाषा ऊपर लिखित दो परिभाषाओं की तुलना में निश्चित रूप से प्रयोग के स्वरूप पर प्रकाश डालने में समर्थ हुई है। इसके द्वारा प्रयोग का स्वरूप अत्यधिक रूप से स्पष्ट हो जाता है।
ऊपर लिखित परिभाषाओं को मद्देनजर रखते हुए प्रयोगात्मक विधि की परिभाषा निम्नलिखित शब्दों में दी जा सकती है "Experiment is an observation in laboratory by experiment upon the subject under preplanned and controlled situation with the help of psychological apparatus so as to know the effect of independent variable".
प्रयोगात्मक विधि की विशेषताएँ एवं शर्तें : ऊपर लिखित परिभाषा के आधार पर प्रयोगात्मक विधि की निम्नांकित विशेषताएँ एवं शर्तें दृष्टिगोचर होती हैं।
1. प्रयोगकर्त्ता (Experimentor): प्रयोग के लिये प्रयोगकर्ता का होना जरूरी है। जो प्रयोग करता है उसे
प्रयोगकर्ता(Experimentor) कहा जाता है।
2. प्रयोज्य (Subjeet) : प्रयोग के लिये प्रयोगकर्ता के साथ-साथ प्रयोज्य का होना भी जरूरी है। जिस पर प्रयोग किया जाता है, उसे प्रयोज्य कहा जाता है। प्रयोज्य की श्रेणी में कोई भी प्राणी आ सकता जैसे मनुष्य, कुत्ता, बिल्ली इत्यादि।
3. निरीक्षण (Observation) : मनोवैज्ञानिक प्रयोग में निरीक्षण की प्रधानता रहती है। निरीक्षण मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं।
(i) अन्तर्निरीक्षण (Introspection)
(ii) वाह्य निरीक्षण (Objective observation )
प्रयोग के अन्दर ऊपर लिखित दोनों प्रकार के निरीक्षण आते हैं।
4. प्रयोगशाला (Laboratory) : प्रयोग के लिये एक ऐसी जगह होनी चाहिये जो बाधाओं से मुक्त हो। दूसरे शब्दों में प्रयोग जहाँ पर किया जाता है, प्रयोगशाला कहा जाता है।
5. मनोवैज्ञानिक यंत्रों का उपयोग : (Use of Psychological apparatus) प्रयोगकर्ता प्रयोज्य की अनुभूतियों एवं व्यवहारों का निरीक्षण विशेष यंत्रों की सहायता से करता है। इन यंत्रों की रचना मनोवैज्ञानिक प्रविधियों के आधार पर होती है। इन्हें मनोवैज्ञानिक यंत्र कहा जाता है।
6. नियंत्रित अवस्था : (Controlled situation) मनोवैज्ञानिक प्रयोग की यह भी एक प्रमुख विशेषता है कि यह नियंत्रित अवस्था में होता है। यद्यपि भौतिक वातावरण को पूर्णरूपेण नियंत्रित करना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव है, फिर भी यह प्रयास किया जाता है कि वातावरण में किसी प्रकार का परिवर्तन न होने पाये, क्योंकि ऐसा होने से व्यक्ति की क्रियाएँ भी परिवर्तित हो जाती हैं।
7. परिवर्त्य (Variable) : वातावरण की स्थिति में हमेशा परिवर्तन होता रहता है। यहाँ पर यह उल्लेख कर देना उचित मालूम पड़ता है कि वातावरण मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं----
(i) वाह्य वातावरण (External environment) जैसे-धूप,सर्दी इत्यादि!
(ii) आन्तरिक वातावरण (Internal environment) जैसे भूख, प्यास, क्रोध, आनन्द इत्यादि!
ऊपर लिखित दोनों प्रकार के वातावरणों में क्षण-क्षण में परिवर्तन होता रहता है। इसे ही परिवर्त्य (Variable) कहा जाता है। मनोवैज्ञानिक प्रयोग (Psychological experiment) के अन्तर्गत परिवत्यों को निम्नलिखित श्रेणियों में विभक्त किया गया है!
(i) स्वतंत्र परिवर्त्य (Independent variable): किसी मानसिक क्रिया पर जिस परिवर्त्य का प्रभाव देखना होता है, उसे स्वतंत्र परिवर्त्य (Independent variable) कहा जाता है जैसे यह देखना कि स्मरण पर पुनरावृत्ति (Repetition) का क्या प्रभाव पड़ता है। इसमें पुनरावृत्ति को स्वतंत्र परिवर्त्य कहा जायेगा।
(ii) आश्रित परिवर्त्य (Dependent variable) : स्वतंत्र परिवर्त्य का प्रभाव जो क्रिया विशेष पर पड़ता है, उसे आश्रित परिवर्त्य (Dependent variable) कहा जाता है। जैसे- पुनरावृत्ति (Repetition) स्मरण क्रिया को प्रभावित करती है तो हम कह सकते हैं कि स्मरण पुनरावृत्ति पर आश्रित या निर्भर है। अतः "स्मरण" आश्रित परिवर्त्य है
(iii) नियंत्रित परिवर्त्य (Controlled or constant variable) :
चूँकि प्रयोग के अन्दर एक परिवर्त्य का प्रभाव देखना होता है, इसलिए अन्य परिवत्यों को प्रयोग में नियंत्रित रखा जाता है। अतः वे परिवर्त्य (Variables) जिन्हें प्रयोग में स्थिर या नियंत्रित रखा जाता है, नियंत्रित परिवर्त्य कहलाते हैं। जैसे-स्मरण क्रिया पर पुनरावृत्ति के प्रभाव का अध्ययन करते समय उन सभी परिक्यों जैसे विश्राम प्रशिक्षण, पृष्ठोन्मुख अवरोध (Retroactive inhibition), शिक्षणगति (Speed of learning), शिक्षण विधि (Method of learning) आदि को स्थिर या नियंत्रित रखा जाता है ताकि जाँच के समय उनमें कोई परिवर्तन न आ जाय!
3. निरीक्षण (Observation) : मनोवैज्ञानिक प्रयोग में निरीक्षण की प्रधानता रहती है। निरीक्षण मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं।
(i) अन्तर्निरीक्षण (Introspection)
(ii) वाह्य निरीक्षण (Objective observation )
प्रयोग के अन्दर ऊपर लिखित दोनों प्रकार के निरीक्षण आते हैं।
4. प्रयोगशाला (Laboratory) : प्रयोग के लिये एक ऐसी जगह होनी चाहिये जो बाधाओं से मुक्त हो। दूसरे शब्दों में प्रयोग जहाँ पर किया जाता है, प्रयोगशाला कहा जाता है।
5. मनोवैज्ञानिक यंत्रों का उपयोग : (Use of Psychological apparatus) प्रयोगकर्ता प्रयोज्य की अनुभूतियों एवं व्यवहारों का निरीक्षण विशेष यंत्रों की सहायता से करता है। इन यंत्रों की रचना मनोवैज्ञानिक प्रविधियों के आधार पर होती है। इन्हें मनोवैज्ञानिक यंत्र कहा जाता है।
6. नियंत्रित अवस्था : (Controlled situation) मनोवैज्ञानिक प्रयोग की यह भी एक प्रमुख विशेषता है कि यह नियंत्रित अवस्था में होता है। यद्यपि भौतिक वातावरण को पूर्णरूपेण नियंत्रित करना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव है, फिर भी यह प्रयास किया जाता है कि वातावरण में किसी प्रकार का परिवर्तन न होने पाये, क्योंकि ऐसा होने से व्यक्ति की क्रियाएँ भी परिवर्तित हो जाती हैं।
7. परिवर्त्य (Variable) : वातावरण की स्थिति में हमेशा परिवर्तन होता रहता है। यहाँ पर यह उल्लेख कर देना उचित मालूम पड़ता है कि वातावरण मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं----
(i) वाह्य वातावरण (External environment) जैसे-धूप,सर्दी इत्यादि!
(ii) आन्तरिक वातावरण (Internal environment) जैसे भूख, प्यास, क्रोध, आनन्द इत्यादि!
ऊपर लिखित दोनों प्रकार के वातावरणों में क्षण-क्षण में परिवर्तन होता रहता है। इसे ही परिवर्त्य (Variable) कहा जाता है। मनोवैज्ञानिक प्रयोग (Psychological experiment) के अन्तर्गत परिवत्यों को निम्नलिखित श्रेणियों में विभक्त किया गया है!
(i) स्वतंत्र परिवर्त्य (Independent variable): किसी मानसिक क्रिया पर जिस परिवर्त्य का प्रभाव देखना होता है, उसे स्वतंत्र परिवर्त्य (Independent variable) कहा जाता है जैसे यह देखना कि स्मरण पर पुनरावृत्ति (Repetition) का क्या प्रभाव पड़ता है। इसमें पुनरावृत्ति को स्वतंत्र परिवर्त्य कहा जायेगा।
(ii) आश्रित परिवर्त्य (Dependent variable) : स्वतंत्र परिवर्त्य का प्रभाव जो क्रिया विशेष पर पड़ता है, उसे आश्रित परिवर्त्य (Dependent variable) कहा जाता है। जैसे- पुनरावृत्ति (Repetition) स्मरण क्रिया को प्रभावित करती है तो हम कह सकते हैं कि स्मरण पुनरावृत्ति पर आश्रित या निर्भर है। अतः "स्मरण" आश्रित परिवर्त्य है
(iii) नियंत्रित परिवर्त्य (Controlled or constant variable) :
चूँकि प्रयोग के अन्दर एक परिवर्त्य का प्रभाव देखना होता है, इसलिए अन्य परिवत्यों को प्रयोग में नियंत्रित रखा जाता है। अतः वे परिवर्त्य (Variables) जिन्हें प्रयोग में स्थिर या नियंत्रित रखा जाता है, नियंत्रित परिवर्त्य कहलाते हैं। जैसे-स्मरण क्रिया पर पुनरावृत्ति के प्रभाव का अध्ययन करते समय उन सभी परिक्यों जैसे विश्राम प्रशिक्षण, पृष्ठोन्मुख अवरोध (Retroactive inhibition), शिक्षणगति (Speed of learning), शिक्षण विधि (Method of learning) आदि को स्थिर या नियंत्रित रखा जाता है ताकि जाँच के समय उनमें कोई परिवर्तन न आ जाय!
8. पूर्व योजना (Pre-planning) : यह प्रयोगात्मक विधि का बहुत ही महत्त्वपूर्ण अंग है। पूर्व योजना से अभिप्राय यह है कि प्रयोग का आरम्भ करने के पहले प्रयोग-विशेष की एक योजना तैयार कर ली जाती है तथा उसी के अनुसार यंत्रों एवं उपकरणों का उपयोग किया जाता है।
9. प्रदत्त (Data) : प्रयोग करने से किसी भी समस्या के सम्बन्ध में जो सूचनाएँ : प्राप्त होती हैं, उन्हें प्रदत्त (Data) कहा जाता है। प्रदत्त मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं-(1) वस्तुनिष्ठ (Objective) (ii) आत्मनिष्ठ (Subjective) | मनोवैज्ञानिक प्रयोग में दोनों प्रकार के प्रदत्तों की जाँच की जाती है।
प्रकार के प्रदत्तों की जाँच की जाती है।
10. सांख्यिक निरूपण (Statistical treatment) : प्रयोग से प्राप्त प्रदत्त का सांख्यिक निरूपण किया जाता है जिसके द्वारा एक खास निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है। अन्त में प्रयोग को दुहराकर इसकी विश्वसनीयता (Reliability) की जाँच की जाती है और तत्पश्चात् किसी सामान्य नियम की स्थापना की जाती है।
प्रयोगात्मक विधि के गुण :
1. वस्तुनिष्ठ तथा अवैयक्तिक विधि इस विधि का प्रमुख गुण यह है कि यह वस्तुनिष्ठ तथा अवैयक्तिक है। अर्थात् इस विधि द्वारा प्राप्त प्रदत्त की जाँच दुहराकर की जा सकती है। यह सुविधा अन्तर्निरीक्षण विधि में नहीं पायी जाती है।
2. सांख्यिक निरूपण का होना : इस विधि का दूसरा गुण यह है कि इसके द्वारा प्राप्त प्रदत्त का सांख्यिक निरूपण (Statistical treatment) सम्भव होता है जिससे यह विधि काफी वैज्ञानिक बन जाती है।
3. विश्वसनीय निष्कर्ष : प्रयोगात्मक विधि द्वारा दोनों प्रकार के गुणात्मक तथा संख्यात्मक प्रदत्त प्राप्त होते हैं। अत: दोनों प्रकार के प्रदत्तों के तुलनात्मक आधार पर जो निष्कर्ष निकाला जायेगा, वह निश्चय ही अधिक विश्वसनीय होगा।
4. निष्कर्ष की पुनः जाँच की सम्भावना : प्रयोग विशेष के नियंत्रित अवस्थाओं से परिचित होने की वजह से प्रयोग को आवश्यकतानुसार दुहराया जा सकता है तथा पहले प्राप्त निष्कर्ष की जाँच की जा सकती है। यह गुण अन्य विधियों के साथ मौजूद नहीं है।
इसीलिए इस विधि द्वारा प्राप्त निष्कर्ष अधिक निष्पक्ष एवं वैज्ञानिक होता है।
5. व्यापक विधि : प्रयोगात्मक विधि द्वारा पशुओं, पक्षियों, बालकों और असामान्य व्यक्तियों के व्यवहारों का अध्ययन सम्भव है। इस तरह से इसका उपयोग मनोविज्ञान में व्यापक रूप से किया जाता है।
प्रयोगात्मक विधि के अवगुण : प्रयोगात्मक विधि एक ऐसी विधि है जिसके द्वारा मनुष्य या प्राणी का अध्ययन एक नियंत्रित अवस्था में किया जाता है। चूँकि मनुष्य के व्यवहार गत्यात्मक (Dynamic) होते हैं, इसलिये प्रयोगात्मक विधि का उपयोग मनुष्य के व्यवहारों और अनुभूतियों के अध्ययन में कहाँ तक सफल होता है इसकी कोई सीमा स्थापित नहीं की जा सकती है। फिर भी प्रयोगात्मक विधि की भी कुछ सीमाएँ (Limitations) हैं जिन्हें हम वास्तव में अवगुण नहीं कह सकते हैं। प्रयोगात्मक विधि की आलोचना निम्नलिखित शब्दों में की जा सकती हैं।
1. स्वाभाविक प्रतिक्रियाओं का अध्ययन नहीं : प्रयोगात्मक विधि मनुष्य या प्राणी के व्यवहारों का अध्ययन एक अस्वाभाविक परिस्थिति में करती है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि इसके द्वारा मनुष्य या प्राणी की स्वाभाविक प्रतिक्रियाओं का अध्ययन नहीं किया जा सकता। व्यावहारिक जीवन में प्राणी खुने वातावरण में काफी सोच विचार कर क्रियाएँ करता है जिसकी सम्भावना यहीं नहीं रहती। अतः कहा जा सकता है कि प्राणी के क्रियाओं की सही जानकारी यहाँ नहीं मिलती। फिर भी हम कह सकते हैं कि प्रयोगात्मक विधि का यह दोष बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है क्योंकि प्राणी की क्रियाओं में स्वाभाविकता बहुत हद तक आ सकती है।
2. वातावरण पर नियंत्रण में कठिनाई : प्रयोगात्मक विधि द्वारा अध्ययन करने में सबसे बड़ी कठिनाई यह होती है कि व्यक्ति परिस्थिति और वातावरण पर आवश्यकतानुसार नियंत्रण स्थापित नहीं हो सकता है। जैसे यदि हम थकावट का प्रभाव व्यक्ति की कार्य कुशलता पर देखना चाहें तो यहाँ पर इस बात पर नियंत्रण स्थापित करना बहुत कठिन होता है कि किस कार्य से अमुक व्यक्ति में थकावट (मानसिक या शारीरिक) उत्पन्न करायी जाय और कौन से तरीकों से थकावट का प्रभाव दूर किया जाय।
3. सभी मानसिक प्रतिक्रियाओं का अध्ययन असम्भव :
सभी मानसिक प्रतिक्रियाओं का अध्ययन प्रयोगात्मक विधि द्वारा सम्भव नहीं है। जैसे-अचेतन प्रतिक्रियाओं का अध्ययन प्रयोगात्मक विधि द्वारा संभव नहीं है। इसी तरह संवेग का अध्ययन नियंत्रित परिस्थिति में करना सम्भव नहीं होता व्यक्ति की अनेक सामाजिक प्रतिक्रियाओं जैसे भीड़, सामूहिक व्यवहार आदि का अध्ययन करना किसी नियंत्रित वातावरण में सम्भव नहीं होता है। फिर भी इस आपत्ति के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि मनोवैज्ञानिक जगत्' में दिनानुदिन अनुसंधान की संख्या में वृद्धि हो रही है। मनोविज्ञान के इतिहास को देखने से मालूम पड़ता है कि आरम्भ में बहुत कम मानसिक प्रतिक्रियाओं का प्रयोगात्मक अध्ययन किया जाता था। लेकिन पहले की तुलना में आज अधिकांश मानसिक प्रतिक्रियाओं का अध्ययन सम्भव हो गया है। अतः आशा की जा सकती है कि आने वाले दिनों में सभी प्रकार की मानसिक प्रतिक्रियाओं का अध्ययन इस विधि द्वारा सम्भव हो जायेगा।
4. मनुष्यों पर सभी प्रकार के प्रयोग सम्भव नहीं हैं : मनोवैज्ञानिक विधि की एक यह भी त्रुटि है कि सभी प्रकार के प्रयोग मनुष्यों पर नहीं किये जा सकते हैं। कुछ ऐसे भी प्रयोग हैं जिनके लिए मनुष्य तैयार नहीं हो सकते हैं। जैसे-संवेग से सम्बन्धित प्रयोग मनुष्यों पर नहीं किये जा सकते हैं। ऐसी स्थिति में इस विधि की उपयोगिता कम हो जाती है।
फिर भी ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि इससे प्रयोगात्मक विधि की उपयोगिता में है कोई विशेष कमी होती है। हम जिन प्रयोगों को मनुष्यों पर नहीं कर सकते हैं, उन्हें अन्य प्राणियों (जैसे कुत्ता, बिल्ली, बन्दर) आदि पर आसानी से किया जा सकता है तथा उनसे प्राप्त निष्कर्ष का उपयोग मनुष्य के संदर्भ में भी किया जा सकता है क्योंकि, डार्विन ने अपने विकासवाद के सिद्धांत के आधार पर यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्यों के मस्तिष्क की बनावट लगभग पशुओं के समान ही होती है। इस प्रकार पशुओं के ऊपर किये गये प्रयोग से प्राप्त निष्कर्ष का उपयोग मनुष्यों के क्षेत्र में किया जा सकता है।
प्रश्न : अन्तर्निरीक्षण विधि क्या है? इस विधि के गुण एवं दोषों को बतायें। (What is introspective method? Point out the merits and demerits of the method.)
अथवा
प्रश्न : अन्तर्निरीक्षण विधि क्या है? इस विधि के गुण एवं दोषों को बतायें। (What is introspective method? Point out the merits and demerits of the method.)
2. सरल विधि : अन्तर्निरीक्षण द्वारा व्यक्ति अपनी मानसिक क्रियाओं का निरीक्षण नियमित ढंग से कर सकता है। इसके लिये उसे किसी यंत्र की आवश्यकता नहीं होती है। वह जिस समय चाहता है, अपनी मानसिक क्रियाओं का स्वयं निरीक्षण कर लेता है।
3. मौलिक विधि : अन्तर्निरीक्षण विधि मनोविज्ञान की एक मौलिक विधि है जिसके द्वारा मानसिक क्रियाओं का अध्ययन स्वाभाविक रूप से किया जा सकता है। इस विधि पर निरीक्षक का पूरा विश्वास होता है। इस विधि को मानसिक क्रियाओं का आईना (Mirror of mental experience process) भी कहा जा सकता है।
4. संवेदनाओं को जानने की एकमात्र विधि : अन्तर्निरीक्षण संवेदनाओं को जानने के लिये एकमात्र विधि है देखना, सुनना तथा तापशक्ति का अनुभव करना आदि हमारी अनुभूतियाँ हैं। जब तक इन्हें अनुभवकर्ता द्वारा अपने शब्दों में व्यक्त नहीं किया जायगा, इसके सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त नहीं की जा सकती है।
5. ऐतिहासिक महत्त्व : इस विधि का महत्त्व बतलाते हुए यह बता देना आवश्यक है कि मनोविज्ञान को विज्ञान बनाने में इस विधि का अपूर्व सहयोग है। शुरू के मनोवैज्ञानिकों-उण्ट, टिचनर आदि ने इसी विधि की सहायता से मनोवैज्ञानिक समस्याओं का अध्ययन किया था और कई महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त, नियम और तथ्यों का प्रतिपादन किया। इस सम्बन्ध में इविंग हास के अध्ययन उल्लेखनीय हैं जिसने स्वयं सैकड़ों निरर्थक शब्द याद कर स्मरण विस्मरण के सम्बन्ध में सिद्धान्त और नियम बताये।
अन्तर्निरीक्षण विधि के दोष :
1. अव्यावहारिक विधि : व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों के अनुसार अन्तर्निरीक्षण विधि एक अव्यावहारिक (Impractical) विधि है, क्योंकि इसके द्वारा व्यक्ति की मानसिक क्रियाओं का निरीक्षण उचित ढंग से नहीं किया जा सकता है। इसका मुख्य कारण यह हैं कि एक ही व्यक्ति मानसिक क्रिया में बझा रहता है और वह खुद ही इसका निरीक्षण भी करता है, जबकि मन को एक ऐसी इकाई माना जाता है जो एक साथ दो काम नहीं कर सकता है। वास्तव में मानसिक क्रियाएँ इतनी चंचल होती हैं कि जब तक व्यक्ति उनके बारे में जानकारी प्राप्त करने की चेष्टा करता है वे समाप्त हो जाती हैं। जैसे-अगर कोई क्रोध की अवस्था में होने वाली मानसिक अनुभूतियों को जानने लगे तो क्रोध समाप्त हो जायगा और कोई जानकारी नहीं हो पायगी। इस सम्बन्ध में स्टाउट का कहना है कि "अन्तर्निरीक्षण की मिसाल उसी प्रकार से है जैसे एक मुर्गों को काटकर आधा पका दिया जाय और आधा अण्डा के लिये छोड़ दिया जाय।
2. आत्मनिष्ठ विधि : इस विधि को एक आत्मनिष्ठ (Subjective) विधि कहा जाता है क्योंकि प्रयोगशाला में इस विधि का उपयोग प्रयोज्य (Subject) द्वारा होता है प्रयोगकर्ता (Experimenter) द्वारा नहीं प्रयोज्य जब अपनी अनुभूति को प्रकट करता है। तो वह आत्मचेतन (Self conscious) में रहता है जिसका यह नतीजा होता है कि वह स्वतंत्र रूप से या स्वाभाविक रूप से अपनी अनुभूति को प्रकट करने में असमर्थ रहता है।
दूसरी दृष्टि से अन्तर्निरीक्षण का सम्बन्ध अनुभूति (Experience) से होता है जो कि एक व्यक्तिगत चीज है। इसीलिए अन्तर्निरीक्षण विधि को एक आत्मनिष्ठ विधि (Subjective method) कहा जाता है।
3. अवैज्ञानिक विधि : अन्तर्निरीक्षण विधि एक अवैज्ञानिक विधि (Unscientific method) है। चूंकि इसका सम्बन्ध व्यक्ति की अनुभूति से होता है इसलिये परिणामस्वरूप इसके द्वारा जो सामग्रियाँ प्राप्त की जाती हैं, उनमें व्यक्तिगत विभिन्नताएँ पायी जाती हैं। ऐसी स्थिति में किसी नियम का संपादन या किसी प्रकार का सामान्यीकरण (Generalization) नहीं किया जा सकता है।
4. अविश्वसनीय : अन्तर्निरीक्षण विधि विश्वसनीय (Reliable) नहीं है। इसके द्वारा मन का अध्ययन किया जाता है। चूँकि मानसिक क्रियाएँ चंचल होती हैं, इसलिये इनका क्रमबद्ध रूप में अध्ययन नहीं किया जा सकता है। इस विधि में हमें मानसिक अनुभूतियों की जानकारी के लिये अनुभवकर्त्ता पर ही निर्भर रहना पड़ता है। परन्तु व्यक्ति जो अनुभव कर रहा है उसे ही वह भाषा में व्यक्त कर रहा है या नहीं इसकी जाँच करना कठिन है। अगर कोई व्यक्ति क्रोध का अनुभव करने के बाद भी झूठ बोल दे कि वह ऐसा अनुभव नहीं कर रहा है तो उसको जाँच सम्भव नहीं है।
5. सीमित उपयोग : अन्तर्निरीक्षण विधि का उपयोग सीमित होता है क्योंकि इसके द्वारा केवल सामान्य प्रौढ़ व्यक्तियों का ही अध्ययन किया जा सकता है। पशुओं, पक्षियों, बालकों और असामान्य व्यक्तियों की मानसिक क्रियाओं का अध्ययन इस विधि द्वारा सम्भव नहीं है।
6. भाषागत कठिनाई : हमारी सभी अनुभूतियों का अध्ययन इस विधि द्वारा नहीं किया जा सकता है क्योंकि इस विधि का व्यवहार भाषा के माध्यम से होता है और भाषा इस विधि के उपयोग के लिये सबसे बड़ी रुकावट हैं। हमारी कुछ अनुभूतियाँ ऐसी हैं जिनकी अभिव्यक्ति हम भाषा द्वारा नहीं कर सकते हैं; जैसे-मिठास को भाषा में व्यक्त करना कठिन होता है। इसी प्रकार से किसी चीज की गंध (Smell) को अभिव्यक्ति भाषा के माध्यम से नहीं की जा सकती है। इसके अतिरिक्त भाषागत कठिनाई के कारण अनुभूति की सही अभिव्यक्ति नहीं होती। जैसे-गुड़ की मिठास तथा रसगुल्ले की मिठास एक नहीं है। दोनों में अन्तर है जो उपयुक्त भाषा के अभाव में व्यक्त नहीं हो पाता है। कुछ - मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि यह भाषा की कमजोरी है कि हम हर प्रकार की अनुभूतियों को व्यक्त नहीं कर पाते। यह दोष इस विधि का नहीं है। यह बात भी ठीक प्रतीत होती है। लेकिन इतना तो मानना ही पड़ेगा कि हम अनुभूतियों को व्यक्त नहीं कर पाते हैं।
7. मनोविज्ञान की विधि ही नहीं : वस्तुतः अन्तर्निरीक्षण मनोविज्ञान की विधि ही : नहीं है क्योंकि मनोविज्ञान केवल व्यक्ति के व्यवहार और अनुभूति का अध्ययन वस्तुगत निरीक्षण विधि द्वारा ही करता है। ऐसा करने के लिये उसे व्यक्ति के प्रत्यक्षीकरण, विचार, भाव, इच्छाओं आदि का निरीक्षण, उससे बातचीत कर या लिखापढ़ी द्वारा करना पड़ता है। इससे स्पष्ट है कि मनोविज्ञान की विधि केवल वस्तुगत निरीक्षण (Observation) है
9. प्रदत्त (Data) : प्रयोग करने से किसी भी समस्या के सम्बन्ध में जो सूचनाएँ : प्राप्त होती हैं, उन्हें प्रदत्त (Data) कहा जाता है। प्रदत्त मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं-(1) वस्तुनिष्ठ (Objective) (ii) आत्मनिष्ठ (Subjective) | मनोवैज्ञानिक प्रयोग में दोनों प्रकार के प्रदत्तों की जाँच की जाती है।
प्रकार के प्रदत्तों की जाँच की जाती है।
10. सांख्यिक निरूपण (Statistical treatment) : प्रयोग से प्राप्त प्रदत्त का सांख्यिक निरूपण किया जाता है जिसके द्वारा एक खास निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है। अन्त में प्रयोग को दुहराकर इसकी विश्वसनीयता (Reliability) की जाँच की जाती है और तत्पश्चात् किसी सामान्य नियम की स्थापना की जाती है।
प्रयोगात्मक विधि के गुण :
1. वस्तुनिष्ठ तथा अवैयक्तिक विधि इस विधि का प्रमुख गुण यह है कि यह वस्तुनिष्ठ तथा अवैयक्तिक है। अर्थात् इस विधि द्वारा प्राप्त प्रदत्त की जाँच दुहराकर की जा सकती है। यह सुविधा अन्तर्निरीक्षण विधि में नहीं पायी जाती है।
2. सांख्यिक निरूपण का होना : इस विधि का दूसरा गुण यह है कि इसके द्वारा प्राप्त प्रदत्त का सांख्यिक निरूपण (Statistical treatment) सम्भव होता है जिससे यह विधि काफी वैज्ञानिक बन जाती है।
3. विश्वसनीय निष्कर्ष : प्रयोगात्मक विधि द्वारा दोनों प्रकार के गुणात्मक तथा संख्यात्मक प्रदत्त प्राप्त होते हैं। अत: दोनों प्रकार के प्रदत्तों के तुलनात्मक आधार पर जो निष्कर्ष निकाला जायेगा, वह निश्चय ही अधिक विश्वसनीय होगा।
4. निष्कर्ष की पुनः जाँच की सम्भावना : प्रयोग विशेष के नियंत्रित अवस्थाओं से परिचित होने की वजह से प्रयोग को आवश्यकतानुसार दुहराया जा सकता है तथा पहले प्राप्त निष्कर्ष की जाँच की जा सकती है। यह गुण अन्य विधियों के साथ मौजूद नहीं है।
इसीलिए इस विधि द्वारा प्राप्त निष्कर्ष अधिक निष्पक्ष एवं वैज्ञानिक होता है।
5. व्यापक विधि : प्रयोगात्मक विधि द्वारा पशुओं, पक्षियों, बालकों और असामान्य व्यक्तियों के व्यवहारों का अध्ययन सम्भव है। इस तरह से इसका उपयोग मनोविज्ञान में व्यापक रूप से किया जाता है।
प्रयोगात्मक विधि के अवगुण : प्रयोगात्मक विधि एक ऐसी विधि है जिसके द्वारा मनुष्य या प्राणी का अध्ययन एक नियंत्रित अवस्था में किया जाता है। चूँकि मनुष्य के व्यवहार गत्यात्मक (Dynamic) होते हैं, इसलिये प्रयोगात्मक विधि का उपयोग मनुष्य के व्यवहारों और अनुभूतियों के अध्ययन में कहाँ तक सफल होता है इसकी कोई सीमा स्थापित नहीं की जा सकती है। फिर भी प्रयोगात्मक विधि की भी कुछ सीमाएँ (Limitations) हैं जिन्हें हम वास्तव में अवगुण नहीं कह सकते हैं। प्रयोगात्मक विधि की आलोचना निम्नलिखित शब्दों में की जा सकती हैं।
1. स्वाभाविक प्रतिक्रियाओं का अध्ययन नहीं : प्रयोगात्मक विधि मनुष्य या प्राणी के व्यवहारों का अध्ययन एक अस्वाभाविक परिस्थिति में करती है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि इसके द्वारा मनुष्य या प्राणी की स्वाभाविक प्रतिक्रियाओं का अध्ययन नहीं किया जा सकता। व्यावहारिक जीवन में प्राणी खुने वातावरण में काफी सोच विचार कर क्रियाएँ करता है जिसकी सम्भावना यहीं नहीं रहती। अतः कहा जा सकता है कि प्राणी के क्रियाओं की सही जानकारी यहाँ नहीं मिलती। फिर भी हम कह सकते हैं कि प्रयोगात्मक विधि का यह दोष बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है क्योंकि प्राणी की क्रियाओं में स्वाभाविकता बहुत हद तक आ सकती है।
2. वातावरण पर नियंत्रण में कठिनाई : प्रयोगात्मक विधि द्वारा अध्ययन करने में सबसे बड़ी कठिनाई यह होती है कि व्यक्ति परिस्थिति और वातावरण पर आवश्यकतानुसार नियंत्रण स्थापित नहीं हो सकता है। जैसे यदि हम थकावट का प्रभाव व्यक्ति की कार्य कुशलता पर देखना चाहें तो यहाँ पर इस बात पर नियंत्रण स्थापित करना बहुत कठिन होता है कि किस कार्य से अमुक व्यक्ति में थकावट (मानसिक या शारीरिक) उत्पन्न करायी जाय और कौन से तरीकों से थकावट का प्रभाव दूर किया जाय।
3. सभी मानसिक प्रतिक्रियाओं का अध्ययन असम्भव :
सभी मानसिक प्रतिक्रियाओं का अध्ययन प्रयोगात्मक विधि द्वारा सम्भव नहीं है। जैसे-अचेतन प्रतिक्रियाओं का अध्ययन प्रयोगात्मक विधि द्वारा संभव नहीं है। इसी तरह संवेग का अध्ययन नियंत्रित परिस्थिति में करना सम्भव नहीं होता व्यक्ति की अनेक सामाजिक प्रतिक्रियाओं जैसे भीड़, सामूहिक व्यवहार आदि का अध्ययन करना किसी नियंत्रित वातावरण में सम्भव नहीं होता है। फिर भी इस आपत्ति के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि मनोवैज्ञानिक जगत्' में दिनानुदिन अनुसंधान की संख्या में वृद्धि हो रही है। मनोविज्ञान के इतिहास को देखने से मालूम पड़ता है कि आरम्भ में बहुत कम मानसिक प्रतिक्रियाओं का प्रयोगात्मक अध्ययन किया जाता था। लेकिन पहले की तुलना में आज अधिकांश मानसिक प्रतिक्रियाओं का अध्ययन सम्भव हो गया है। अतः आशा की जा सकती है कि आने वाले दिनों में सभी प्रकार की मानसिक प्रतिक्रियाओं का अध्ययन इस विधि द्वारा सम्भव हो जायेगा।
4. मनुष्यों पर सभी प्रकार के प्रयोग सम्भव नहीं हैं : मनोवैज्ञानिक विधि की एक यह भी त्रुटि है कि सभी प्रकार के प्रयोग मनुष्यों पर नहीं किये जा सकते हैं। कुछ ऐसे भी प्रयोग हैं जिनके लिए मनुष्य तैयार नहीं हो सकते हैं। जैसे-संवेग से सम्बन्धित प्रयोग मनुष्यों पर नहीं किये जा सकते हैं। ऐसी स्थिति में इस विधि की उपयोगिता कम हो जाती है।
फिर भी ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि इससे प्रयोगात्मक विधि की उपयोगिता में है कोई विशेष कमी होती है। हम जिन प्रयोगों को मनुष्यों पर नहीं कर सकते हैं, उन्हें अन्य प्राणियों (जैसे कुत्ता, बिल्ली, बन्दर) आदि पर आसानी से किया जा सकता है तथा उनसे प्राप्त निष्कर्ष का उपयोग मनुष्य के संदर्भ में भी किया जा सकता है क्योंकि, डार्विन ने अपने विकासवाद के सिद्धांत के आधार पर यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्यों के मस्तिष्क की बनावट लगभग पशुओं के समान ही होती है। इस प्रकार पशुओं के ऊपर किये गये प्रयोग से प्राप्त निष्कर्ष का उपयोग मनुष्यों के क्षेत्र में किया जा सकता है।
प्रश्न : अन्तर्निरीक्षण विधि क्या है? इस विधि के गुण एवं दोषों को बतायें। (What is introspective method? Point out the merits and demerits of the method.)
अथवा
प्रश्न : अन्तर्निरीक्षण विधि क्या है? इस विधि के गुण एवं दोषों को बतायें। (What is introspective method? Point out the merits and demerits of the method.)
2. सरल विधि : अन्तर्निरीक्षण द्वारा व्यक्ति अपनी मानसिक क्रियाओं का निरीक्षण नियमित ढंग से कर सकता है। इसके लिये उसे किसी यंत्र की आवश्यकता नहीं होती है। वह जिस समय चाहता है, अपनी मानसिक क्रियाओं का स्वयं निरीक्षण कर लेता है।
3. मौलिक विधि : अन्तर्निरीक्षण विधि मनोविज्ञान की एक मौलिक विधि है जिसके द्वारा मानसिक क्रियाओं का अध्ययन स्वाभाविक रूप से किया जा सकता है। इस विधि पर निरीक्षक का पूरा विश्वास होता है। इस विधि को मानसिक क्रियाओं का आईना (Mirror of mental experience process) भी कहा जा सकता है।
4. संवेदनाओं को जानने की एकमात्र विधि : अन्तर्निरीक्षण संवेदनाओं को जानने के लिये एकमात्र विधि है देखना, सुनना तथा तापशक्ति का अनुभव करना आदि हमारी अनुभूतियाँ हैं। जब तक इन्हें अनुभवकर्ता द्वारा अपने शब्दों में व्यक्त नहीं किया जायगा, इसके सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त नहीं की जा सकती है।
5. ऐतिहासिक महत्त्व : इस विधि का महत्त्व बतलाते हुए यह बता देना आवश्यक है कि मनोविज्ञान को विज्ञान बनाने में इस विधि का अपूर्व सहयोग है। शुरू के मनोवैज्ञानिकों-उण्ट, टिचनर आदि ने इसी विधि की सहायता से मनोवैज्ञानिक समस्याओं का अध्ययन किया था और कई महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त, नियम और तथ्यों का प्रतिपादन किया। इस सम्बन्ध में इविंग हास के अध्ययन उल्लेखनीय हैं जिसने स्वयं सैकड़ों निरर्थक शब्द याद कर स्मरण विस्मरण के सम्बन्ध में सिद्धान्त और नियम बताये।
अन्तर्निरीक्षण विधि के दोष :
1. अव्यावहारिक विधि : व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों के अनुसार अन्तर्निरीक्षण विधि एक अव्यावहारिक (Impractical) विधि है, क्योंकि इसके द्वारा व्यक्ति की मानसिक क्रियाओं का निरीक्षण उचित ढंग से नहीं किया जा सकता है। इसका मुख्य कारण यह हैं कि एक ही व्यक्ति मानसिक क्रिया में बझा रहता है और वह खुद ही इसका निरीक्षण भी करता है, जबकि मन को एक ऐसी इकाई माना जाता है जो एक साथ दो काम नहीं कर सकता है। वास्तव में मानसिक क्रियाएँ इतनी चंचल होती हैं कि जब तक व्यक्ति उनके बारे में जानकारी प्राप्त करने की चेष्टा करता है वे समाप्त हो जाती हैं। जैसे-अगर कोई क्रोध की अवस्था में होने वाली मानसिक अनुभूतियों को जानने लगे तो क्रोध समाप्त हो जायगा और कोई जानकारी नहीं हो पायगी। इस सम्बन्ध में स्टाउट का कहना है कि "अन्तर्निरीक्षण की मिसाल उसी प्रकार से है जैसे एक मुर्गों को काटकर आधा पका दिया जाय और आधा अण्डा के लिये छोड़ दिया जाय।
2. आत्मनिष्ठ विधि : इस विधि को एक आत्मनिष्ठ (Subjective) विधि कहा जाता है क्योंकि प्रयोगशाला में इस विधि का उपयोग प्रयोज्य (Subject) द्वारा होता है प्रयोगकर्ता (Experimenter) द्वारा नहीं प्रयोज्य जब अपनी अनुभूति को प्रकट करता है। तो वह आत्मचेतन (Self conscious) में रहता है जिसका यह नतीजा होता है कि वह स्वतंत्र रूप से या स्वाभाविक रूप से अपनी अनुभूति को प्रकट करने में असमर्थ रहता है।
दूसरी दृष्टि से अन्तर्निरीक्षण का सम्बन्ध अनुभूति (Experience) से होता है जो कि एक व्यक्तिगत चीज है। इसीलिए अन्तर्निरीक्षण विधि को एक आत्मनिष्ठ विधि (Subjective method) कहा जाता है।
3. अवैज्ञानिक विधि : अन्तर्निरीक्षण विधि एक अवैज्ञानिक विधि (Unscientific method) है। चूंकि इसका सम्बन्ध व्यक्ति की अनुभूति से होता है इसलिये परिणामस्वरूप इसके द्वारा जो सामग्रियाँ प्राप्त की जाती हैं, उनमें व्यक्तिगत विभिन्नताएँ पायी जाती हैं। ऐसी स्थिति में किसी नियम का संपादन या किसी प्रकार का सामान्यीकरण (Generalization) नहीं किया जा सकता है।
4. अविश्वसनीय : अन्तर्निरीक्षण विधि विश्वसनीय (Reliable) नहीं है। इसके द्वारा मन का अध्ययन किया जाता है। चूँकि मानसिक क्रियाएँ चंचल होती हैं, इसलिये इनका क्रमबद्ध रूप में अध्ययन नहीं किया जा सकता है। इस विधि में हमें मानसिक अनुभूतियों की जानकारी के लिये अनुभवकर्त्ता पर ही निर्भर रहना पड़ता है। परन्तु व्यक्ति जो अनुभव कर रहा है उसे ही वह भाषा में व्यक्त कर रहा है या नहीं इसकी जाँच करना कठिन है। अगर कोई व्यक्ति क्रोध का अनुभव करने के बाद भी झूठ बोल दे कि वह ऐसा अनुभव नहीं कर रहा है तो उसको जाँच सम्भव नहीं है।
5. सीमित उपयोग : अन्तर्निरीक्षण विधि का उपयोग सीमित होता है क्योंकि इसके द्वारा केवल सामान्य प्रौढ़ व्यक्तियों का ही अध्ययन किया जा सकता है। पशुओं, पक्षियों, बालकों और असामान्य व्यक्तियों की मानसिक क्रियाओं का अध्ययन इस विधि द्वारा सम्भव नहीं है।
6. भाषागत कठिनाई : हमारी सभी अनुभूतियों का अध्ययन इस विधि द्वारा नहीं किया जा सकता है क्योंकि इस विधि का व्यवहार भाषा के माध्यम से होता है और भाषा इस विधि के उपयोग के लिये सबसे बड़ी रुकावट हैं। हमारी कुछ अनुभूतियाँ ऐसी हैं जिनकी अभिव्यक्ति हम भाषा द्वारा नहीं कर सकते हैं; जैसे-मिठास को भाषा में व्यक्त करना कठिन होता है। इसी प्रकार से किसी चीज की गंध (Smell) को अभिव्यक्ति भाषा के माध्यम से नहीं की जा सकती है। इसके अतिरिक्त भाषागत कठिनाई के कारण अनुभूति की सही अभिव्यक्ति नहीं होती। जैसे-गुड़ की मिठास तथा रसगुल्ले की मिठास एक नहीं है। दोनों में अन्तर है जो उपयुक्त भाषा के अभाव में व्यक्त नहीं हो पाता है। कुछ - मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि यह भाषा की कमजोरी है कि हम हर प्रकार की अनुभूतियों को व्यक्त नहीं कर पाते। यह दोष इस विधि का नहीं है। यह बात भी ठीक प्रतीत होती है। लेकिन इतना तो मानना ही पड़ेगा कि हम अनुभूतियों को व्यक्त नहीं कर पाते हैं।
7. मनोविज्ञान की विधि ही नहीं : वस्तुतः अन्तर्निरीक्षण मनोविज्ञान की विधि ही : नहीं है क्योंकि मनोविज्ञान केवल व्यक्ति के व्यवहार और अनुभूति का अध्ययन वस्तुगत निरीक्षण विधि द्वारा ही करता है। ऐसा करने के लिये उसे व्यक्ति के प्रत्यक्षीकरण, विचार, भाव, इच्छाओं आदि का निरीक्षण, उससे बातचीत कर या लिखापढ़ी द्वारा करना पड़ता है। इससे स्पष्ट है कि मनोविज्ञान की विधि केवल वस्तुगत निरीक्षण (Observation) है
प्रश्न : वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि क्या है? इसके गुण-दोषों की विवेचना करें।
(What is method of objective observation? Discuss its merits and demerits.)
उत्तर : मनोविज्ञान के क्षेत्र में जब व्यवहारवादियों का उदय हुआ और उन्होंने व्यवहार (Behaviour) को मनोविज्ञान की विषय वस्तु माना तो मनोविज्ञान की एक नयी विधि प्रकाश में आयी जिसे वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि कहा जाता है। वस्तुनिष्ठ निरीक्षण का अर्थ है किसी व्यवहार या घटना को देखना प्राणी किसी विशेष वातावरण या उद्दीपन के सम्पर्क में आने के बाद कुछ न कुछ क्रिया करता है जो उसका व्यवहार कहलाता है। यह व्यवहार दृश्य होता है जिसे हर कोई देख सकता है। इन्हीं व्यवहारों का निरीक्षण करके व्यवहार करने वाले व्यक्ति के मानसिक अनुभवों की जानकारी प्राप्त करने की विधि को वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि कहा जाता है। उदाहरण के लिये जब कोई बहुत छोटा बच्चा अपनी माँ को अचानक कुछ देर के बाद देखता है तो उसे खुशी की अनुभूति होती है। अपनी खुशी को व्यक्त करने के लिये वह अपना हाथ पैर हिलाने लगता है और किलकारी करने लगता है। ये ही क्रियाएँ व्यवहार कहलाती हैं जिसको देखकर कोई भी व्यक्ति आसानी से बच्चे की मानसिक अनुभूति खुशी, जो अदृश्य है, का पता लगा सकता है।
शारीरिक व्यवहार दो तरह के होते हैं वाह्य तथा आन्तरिक वाह्य व्यवहार का अर्थ है शरीर के बाहरी अंगों का संचालन जैसे-हँसना, दौड़ना, चिल्लाना, उछलना इत्यादि। इन वाह्य व्यवहारों का निरीक्षण आसानी से बिना किसी यंत्र की सहायता के हो जाता है। दूसरी ओर शरीर के भीतरी अंगों में होने वाले परिवर्तनों को आन्तरिक व्यवहार कहा जाता है जैसे रक्तचाप, साँस की गति, पाचन क्रिया इत्यादि। इन व्यवहारों की जानकारी प्राप्त करने के लिये विभिन्न उपकरणों की सहायता ली जाती है। विभिन्न मानसिक अवस्थाओं के अनुरूप शारीरिक व्यवहार होते हैं। अतः व्यवहारों के माध्यम से मानसिक अवस्थाओं की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि में सही जानकारी के लिये किसी एक सुनिश्चित योजना एवं नियंत्रित पर्यावरण की सहायता ली जाती है। अव्यवस्थित ढंग से किये गये वस्तुनिष्ठ निरीक्षण के माध्यम से प्राप्त होने वाले निष्कर्ष अधिक विश्वसनीय एवं सही नहीं कहे जा सकते हैं।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि व्यवहारों का अध्ययन करने के लिए मनोविज्ञान में वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि की सहायता ली जाती है। इस विधि के निम्नलिखित गुण एवं दोष है :--
वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि के गुण :
1. एक ही साथ कई व्यक्तियों द्वारा अध्ययन वाह्य निरीक्षण एक वस्तुगत (Objective) तथा अवैयक्तिक (Impersonal) विधि है अर्थात् इसके द्वारा दूसरे व्यक्ति की क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। साथ ही अन्य व्यक्ति भी इन क्रियाओं को देखकर निरीक्षक के निष्कर्ष के सरलता की जाँच कर सकते हैं। उदाहरण के लिए क्रोध में चेहरा लाल हो जाता है, भौहें तन जाती हैं, आँखें चढ़ जाती हैं। इसका अध्ययन एक साथ कई व्यक्ति कर सकते हैं।
2. व्यापक विधि : वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि एक व्यापक विधि है जिसका उपयोग पशु-पक्षी, शिशु और असामान्य व्यक्ति सभी पर किया जा सकता है। दुनिया के सभी प्राणी अपनी मानसिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति व्यवहारों के माध्यम से करते हैं। अतः अगर वे अपनी अनुभूतियों को स्वयं व्यक्त नहीं कर पाते हैं तो भी उनकी जानकारी इस विधि से हो जाती है। अतः इसका क्षेत्र विस्तृत है।
3. वैज्ञानिक विधि : इस विधि द्वारा जो जानकारियाँ प्राप्त होती हैं, उनका रूप वस्तुगत होता है और इनका सांख्यिक निरूपण (Statistical treatment) हो सकता है। इससे मनोविज्ञान का रूप अधिक वैज्ञानिक हो जाता है।
4. समय की बचत : इस विधि से समय की बचत होती है। इसमें एक ही साथ एक बड़े समूह (Group) के व्यवहार का अध्ययन आसानी से किया जा सकता है। उदाहरण के लिये भीड़ में एक से अधिक लोग उपस्थित रहते हैं जिनके व्यवहार को हम चाहें तो इस विधि का व्यवहार करके मनोवैज्ञानिक अध्ययन आसानी से कर सकते हैं।
"वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि के दोष :
1. निष्कर्ष हमेशा विश्वसनीय नहीं : इस विधि द्वारा व्यवहार का अध्ययन किया जाता है और व्यवहार ही के अध्ययन के आधार पर अनुभूति का अध्ययन भी किया जाता है। पर यह अध्ययन हमेशा ठीक नहीं होता है। ऐसा देखने में आता है कि देहाती स्त्रियाँ मेले में आकर एक दूसरे से मिलकर रोती हैं। लेकिन इनके रोने का कारण दुःख नहीं होता है बल्कि सुख होता है। एक ही प्रकार की मानसिक अवस्था में उसकी अभिव्यक्ति कई एक तरह के व्यवहारों से की जा सकती है, जैसे चिल्लाना और दौड़ना भय की अवस्था में भी होता है और खुशी की अवस्था में भी अतः व्यवहार के आधार पर मानसिक अनुभूति के बारे में प्राप्त ज्ञान सत्य है या नहीं यह नहीं कहा जा सकता।
2. पूर्वाग्रह ग्रस्त अध्ययन की सम्भावना : इस विधि में एक दोष यह भी है कि व्यवहारों की व्याख्या करते समय निरीक्षण (Observer) के अपने व्यक्तिगत अनुभवों एवं पूर्वाग्रहों का प्रभाव पड़ता है। ऐसा होने से इस विधि द्वारा प्राप्त ज्ञान को निष्पक्ष या वस्तुगत नहीं कहा जा सकता। उदाहरण के लिये कोई धार्मिक व्यक्ति अपने धर्म से सम्बन्धित किये जाने वाले व्यवहारों का हमेशा सही अर्थ लगाता है, जबकि वह किसी दूसरे धर्म के प्रति बने गलत पूर्वाग्रह के कारण उस धर्म के सदस्यों के व्यवहारों का हमेशा गलत अर्थ ही लगाता है। इस विधि का व्यवहार करने वाले निरीक्षक को निष्पक्ष एवं पूर्वाग्रहों से मुक्त होना चाहिए जो साधारणतः नहीं पाया जाता।
प्रश्न : अन्तर्निरीक्षण विधि एवं वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि में अन्तर स्पष्ट करें एवं इन दोनों के बीच सम्बन्ध की व्याख्या करें। (Distinguish between method of introspection and method of objective observation and explain their relation.)
अथवा
"अन्तर्निरीक्षण तथा वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधियाँ एक दूसरे की विरोधी नहीं,बल्कि पूरक हैं।" विवेचना करें।
("Introspection and objective observation are not opposed to each other rather they are complementary." Discuss.
अथवा
अन्तर्निरीक्षण की तुलना में वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि के गुण बतायें। (Examine the advantages of objective observation method over introspective method.).
उत्तर : मनोविज्ञान की प्रगति एवं विकास के क्रम में इसकी विषय-वस्तु की व्याख्या भी अलग-अलग समय पर अलग-अलग की गयी हैं और साथ-साथ इसकी नयी नयी विधियाँ भी प्रकाश में आयी हैं। मनोविज्ञान की विधियों में अन्तर्निरीक्षण विधि सबसे पुरानी विधि है जिसमें अनुभवकर्ता स्वयं अपनी मानसिक क्रियाओं एवं अवस्थाओं की जानकारी प्राप्त करता है। बाद में चलकर वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि प्रकाश में आयो जिससे प्राणी के व्यवहारों का अध्ययन करके उसकी मानसिक अवस्थाओं की जानकारी प्राप्त की जाती है। इन दोनों विधियों की अगर हम तुलना करें तो इनमें निम्नलिखित अन्तर पाते हैं
1. अन्तर्निरीक्षण विधि आत्मनिष्ठ जबकि दूसरी विधि वस्तुनिष्ठ : अन्तर्निरीक्षण विधि एक आत्मनिष्ठ (Subjective) विधि है जबकि दूसरी विधि एक वस्तुनिष्ठ विधि (Objective method) है। अन्तर्निरीक्षण का सम्बन्ध मनुष्य की अनुभूति से रहता है। वह व्यक्ति के मन में छिपी हुई क्रिया होती है जिसे दूसरे लोग अपनी आँखों से नहीं देख सकते हैं। इन्हें जानने के लिये अनुभवकर्त्ता को ही कहा जाता है और वह जो कुछ भी जानकारी प्राप्त करता है उसे ही अन्तर्निरीक्षण कहा जाता है। ठीक इसके विपरीत वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि का संबंध प्राणी के व्यवहार से होता है जिसे सभी लोग अपनी खुली नजर से देख सकते हैं तथा समान रूप से इसका निरीक्षण कर सकते हैं।
2. अन्तर्निरीक्षण अविश्वसनीय जबकि वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विश्वसनीय : अन्तर्निरीक्षण विधि एक अविश्वसनीय (Unreliable) विधि है जबकि वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि एक विश्वसनीय (Reliable) विधि है। वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि से जो सामग्रियाँ (Data) प्राप्त होती हैं वे होती हैं और दूसरे लोग भी इस निरीक्षण को दुहरा सकते हैं। इसके आधार पर किसी नियम का प्रतिपादन या सामान्यीकरण किया जा सकता है। दूसरी तरफ जो सामग्रियाँ (Data) अन्तर्निरीक्षण विधि से प्राप्त की जाती हैं, उनमें व्यक्तिगत विभिन्नताएँ पायी जाती हैं। परिणामस्वरूप इस विधि द्वारा वैज्ञानिक अध्ययन सम्भव नहीं है।
3. अमानिरीक्षण वैयक्तिक, जबकि वस्तुनिष्ठ निरीक्षण निर्वैयक्तिक : अन्तर्निरीक्षण विधि एक व्यक्तिगत विधि है जबकि वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि एक निर्वैयक्तिक (Impersonal) विधि है। इसीलिये वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि को वैज्ञानिक विधि और अन्तर्निरीक्षण विधि को अवैज्ञानिक विधि माना गया है।
4. अन्तर्निरीक्षण सीमित, किन्तु वस्तुनिष्ठ निरीक्षण व्यापक :
अन्तर्निरीक्षण विधि का उपयोग सीमित होता है जबकि वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि का उपयोग व्यापक होता है। मनोविज्ञान के प्रयोग में अन्तर्निरीक्षण का उपयोग केवल प्रयोज्य (Subject) तक ही सीमित होता है। पशु, पक्षी, शिशु आदि अपने मानसिक अनुभवों की जानकारी प्राप्त करके उसे व्यक्त नहीं कर पाते। जबकि वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि का प्रयोग व्यापक रूप से पशु, पक्षी, शिशु और असामान्य व्यक्ति पर भी होता है।
5. अन्तर्निरीक्षण अव्यावहारिक, किन्तु वस्तुनिष्ठ निरीक्षण व्यावहारिक : अन्तर्निरीक्षण विधि एक अव्यावहारिक (Impractical) विधि है; क्योंकि अन्तर्निरीक्षण विधि में एक ही व्यक्ति विचार करता है और वही व्यक्ति विषय का निरीक्षण भी करता है। इसीलिये एक ही व्यक्ति दो मानसिक क्रियाओं में बझा रहता है जो अव्यावहारिक मालूम पड़ता है। इससे यह स्पष्ट है कि अन्तर्निरीक्षण विधि एक अव्यावहारिक विधि है। वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि में प्रयोगकर्ता तथा जिस पर प्रयोग किया जा रहा है वे दो सत्ताएँ होती हैं जो वैज्ञानिक विधि के लिये आवश्यक शर्त मानी जाती हैं।
6. अन्तर्निरीक्षण में वैज्ञानिक प्रयोग असम्भव, किन्तु वस्तुनिष्ठ निरीक्षण से वैज्ञानिक निष्कर्ष सम्भव:
अन्तर्निरीक्षण विधि द्वारा वैज्ञानिक प्रयोग करना असम्भव होता है; क्योंकि इसका आधार व्यक्ति की व्यक्तिगत और आत्मनिष्ठ अनुभूति होती है। इस विधि द्वारा जो सामग्रियाँ (Data) प्राप्त होती हैं, वे सत्य (Valid) नहीं होती हैं, जबकि वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि द्वारा जो सामग्रियाँ प्राप्त होती हैं वे सत्य और विश्वसनीय होती हैं जिनके आधार पर वैज्ञानिक निष्कर्ष प्राप्त करना संभव होता है।
7. अन्तर्निरीक्षण का प्रयोग सीमित, जबकि वस्तुनिष्ठ निरीक्षण व्यापक : अन्तर्निरीक्षण विधि द्वारा किसी एक ही व्यक्ति का अध्ययन एक समय में किया जा सकता है, एक साथ अधिक व्यक्तियों का नहीं जैसे भीड़ आदि का मनोवैज्ञानिक अध्ययन इस विधि से सम्भव नहीं है। साथ ही साथ इस विधि में सांख्यिकी परिणाम भी सम्भव नहीं है, जबकि वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि के आधार पर एक ही समय में एक से अधिक व्यक्ति के व्यवहारों का अध्ययन किया जा सकता है और साथ ही साथ इसमें सांख्यिकी (Stastistical) परिणाम भी सम्भव है।
ऊपर बतलाये गये अन्तरों को जानने के बाद ऐसा लगता है कि अन्तर्निरीक्षण और वस्तुनिष्ठ निरीक्षण पूर्णत: विरोधी विधियाँ हैं। अन्तर्निरीक्षण में व्यक्ति केवल अपने मानसिक क्रियाओं का अध्ययन करता है जबकि वाह्य निरीक्षण विधि में दूसरे व्यक्ति के व्यवहारों के माध्यम से उसकी मानसिक क्रियाओं की जानकारी प्राप्त करता है। लेकिन ध्यान देने पर हम पायेंगे कि ये दोनों विधियों वास्तव में एक दूसरे की विरोधी नहीं, बल्कि सहायक एवं पूरक हैं। अन्तर्निरीक्षण विधि में जो सम्भावना रहती है कि व्यक्ति अपने मानसिक अनुभवों को छुपा ले सकता है, उसे वस्तुनिष्ठ निरीक्षण की विधि से जान लिया जा सकता है। इसी तरह वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि में जो व्यवहारों का अध्ययन किया जाता हैं और उनकी सहायता से मानसिक अवस्थाओं का पता लगाया जाता है, वह भी अन्तर्निरीक्षण द्वारा। अगर किसी व्यक्ति ने स्वयं यह अनुभव नहीं किया हो कि क्रोध या भय या इसी तरह अन्य दूसरी मानसिक अनुभूतियों में प्राणी किस तरह का व्यवहार करता है अर्थात् उसने स्वयं पहले अपना अन्तर्निरीक्षण नहीं किया है तो वह वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि के माध्यम से दूसरे की मानसिक अवस्थाओं की जानकारी नहीं प्राप्त कर सकता। से इस तरह हम पाते हैं कि दोनों विधियाँ एक दूसरे की कमियों को पूरा करती हैं। इन दोनों की सम्मिलित सहायता से प्राणी की मानसिक क्रियाओं एवं व्यवहारों का समुचित ढंग से अध्ययन किया जा सकता है। यही कारण है कि मनोविज्ञान की एक अत्यन्त उपयोगी विधि प्रायोगिक विधि (Experimental method) में दोनों को समुचित स्थान दिया गया है।
अतः इस कह सकते हैं कि दोनों विधियों एक दूसरे की पूरक या सहायक हैं, परस्पर विरोधी नहीं।
(What is method of objective observation? Discuss its merits and demerits.)
उत्तर : मनोविज्ञान के क्षेत्र में जब व्यवहारवादियों का उदय हुआ और उन्होंने व्यवहार (Behaviour) को मनोविज्ञान की विषय वस्तु माना तो मनोविज्ञान की एक नयी विधि प्रकाश में आयी जिसे वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि कहा जाता है। वस्तुनिष्ठ निरीक्षण का अर्थ है किसी व्यवहार या घटना को देखना प्राणी किसी विशेष वातावरण या उद्दीपन के सम्पर्क में आने के बाद कुछ न कुछ क्रिया करता है जो उसका व्यवहार कहलाता है। यह व्यवहार दृश्य होता है जिसे हर कोई देख सकता है। इन्हीं व्यवहारों का निरीक्षण करके व्यवहार करने वाले व्यक्ति के मानसिक अनुभवों की जानकारी प्राप्त करने की विधि को वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि कहा जाता है। उदाहरण के लिये जब कोई बहुत छोटा बच्चा अपनी माँ को अचानक कुछ देर के बाद देखता है तो उसे खुशी की अनुभूति होती है। अपनी खुशी को व्यक्त करने के लिये वह अपना हाथ पैर हिलाने लगता है और किलकारी करने लगता है। ये ही क्रियाएँ व्यवहार कहलाती हैं जिसको देखकर कोई भी व्यक्ति आसानी से बच्चे की मानसिक अनुभूति खुशी, जो अदृश्य है, का पता लगा सकता है।
शारीरिक व्यवहार दो तरह के होते हैं वाह्य तथा आन्तरिक वाह्य व्यवहार का अर्थ है शरीर के बाहरी अंगों का संचालन जैसे-हँसना, दौड़ना, चिल्लाना, उछलना इत्यादि। इन वाह्य व्यवहारों का निरीक्षण आसानी से बिना किसी यंत्र की सहायता के हो जाता है। दूसरी ओर शरीर के भीतरी अंगों में होने वाले परिवर्तनों को आन्तरिक व्यवहार कहा जाता है जैसे रक्तचाप, साँस की गति, पाचन क्रिया इत्यादि। इन व्यवहारों की जानकारी प्राप्त करने के लिये विभिन्न उपकरणों की सहायता ली जाती है। विभिन्न मानसिक अवस्थाओं के अनुरूप शारीरिक व्यवहार होते हैं। अतः व्यवहारों के माध्यम से मानसिक अवस्थाओं की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि में सही जानकारी के लिये किसी एक सुनिश्चित योजना एवं नियंत्रित पर्यावरण की सहायता ली जाती है। अव्यवस्थित ढंग से किये गये वस्तुनिष्ठ निरीक्षण के माध्यम से प्राप्त होने वाले निष्कर्ष अधिक विश्वसनीय एवं सही नहीं कहे जा सकते हैं।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि व्यवहारों का अध्ययन करने के लिए मनोविज्ञान में वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि की सहायता ली जाती है। इस विधि के निम्नलिखित गुण एवं दोष है :--
वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि के गुण :
1. एक ही साथ कई व्यक्तियों द्वारा अध्ययन वाह्य निरीक्षण एक वस्तुगत (Objective) तथा अवैयक्तिक (Impersonal) विधि है अर्थात् इसके द्वारा दूसरे व्यक्ति की क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। साथ ही अन्य व्यक्ति भी इन क्रियाओं को देखकर निरीक्षक के निष्कर्ष के सरलता की जाँच कर सकते हैं। उदाहरण के लिए क्रोध में चेहरा लाल हो जाता है, भौहें तन जाती हैं, आँखें चढ़ जाती हैं। इसका अध्ययन एक साथ कई व्यक्ति कर सकते हैं।
2. व्यापक विधि : वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि एक व्यापक विधि है जिसका उपयोग पशु-पक्षी, शिशु और असामान्य व्यक्ति सभी पर किया जा सकता है। दुनिया के सभी प्राणी अपनी मानसिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति व्यवहारों के माध्यम से करते हैं। अतः अगर वे अपनी अनुभूतियों को स्वयं व्यक्त नहीं कर पाते हैं तो भी उनकी जानकारी इस विधि से हो जाती है। अतः इसका क्षेत्र विस्तृत है।
3. वैज्ञानिक विधि : इस विधि द्वारा जो जानकारियाँ प्राप्त होती हैं, उनका रूप वस्तुगत होता है और इनका सांख्यिक निरूपण (Statistical treatment) हो सकता है। इससे मनोविज्ञान का रूप अधिक वैज्ञानिक हो जाता है।
4. समय की बचत : इस विधि से समय की बचत होती है। इसमें एक ही साथ एक बड़े समूह (Group) के व्यवहार का अध्ययन आसानी से किया जा सकता है। उदाहरण के लिये भीड़ में एक से अधिक लोग उपस्थित रहते हैं जिनके व्यवहार को हम चाहें तो इस विधि का व्यवहार करके मनोवैज्ञानिक अध्ययन आसानी से कर सकते हैं।
"वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि के दोष :
1. निष्कर्ष हमेशा विश्वसनीय नहीं : इस विधि द्वारा व्यवहार का अध्ययन किया जाता है और व्यवहार ही के अध्ययन के आधार पर अनुभूति का अध्ययन भी किया जाता है। पर यह अध्ययन हमेशा ठीक नहीं होता है। ऐसा देखने में आता है कि देहाती स्त्रियाँ मेले में आकर एक दूसरे से मिलकर रोती हैं। लेकिन इनके रोने का कारण दुःख नहीं होता है बल्कि सुख होता है। एक ही प्रकार की मानसिक अवस्था में उसकी अभिव्यक्ति कई एक तरह के व्यवहारों से की जा सकती है, जैसे चिल्लाना और दौड़ना भय की अवस्था में भी होता है और खुशी की अवस्था में भी अतः व्यवहार के आधार पर मानसिक अनुभूति के बारे में प्राप्त ज्ञान सत्य है या नहीं यह नहीं कहा जा सकता।
2. पूर्वाग्रह ग्रस्त अध्ययन की सम्भावना : इस विधि में एक दोष यह भी है कि व्यवहारों की व्याख्या करते समय निरीक्षण (Observer) के अपने व्यक्तिगत अनुभवों एवं पूर्वाग्रहों का प्रभाव पड़ता है। ऐसा होने से इस विधि द्वारा प्राप्त ज्ञान को निष्पक्ष या वस्तुगत नहीं कहा जा सकता। उदाहरण के लिये कोई धार्मिक व्यक्ति अपने धर्म से सम्बन्धित किये जाने वाले व्यवहारों का हमेशा सही अर्थ लगाता है, जबकि वह किसी दूसरे धर्म के प्रति बने गलत पूर्वाग्रह के कारण उस धर्म के सदस्यों के व्यवहारों का हमेशा गलत अर्थ ही लगाता है। इस विधि का व्यवहार करने वाले निरीक्षक को निष्पक्ष एवं पूर्वाग्रहों से मुक्त होना चाहिए जो साधारणतः नहीं पाया जाता।
प्रश्न : अन्तर्निरीक्षण विधि एवं वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि में अन्तर स्पष्ट करें एवं इन दोनों के बीच सम्बन्ध की व्याख्या करें। (Distinguish between method of introspection and method of objective observation and explain their relation.)
अथवा
"अन्तर्निरीक्षण तथा वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधियाँ एक दूसरे की विरोधी नहीं,बल्कि पूरक हैं।" विवेचना करें।
("Introspection and objective observation are not opposed to each other rather they are complementary." Discuss.
अथवा
अन्तर्निरीक्षण की तुलना में वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि के गुण बतायें। (Examine the advantages of objective observation method over introspective method.).
उत्तर : मनोविज्ञान की प्रगति एवं विकास के क्रम में इसकी विषय-वस्तु की व्याख्या भी अलग-अलग समय पर अलग-अलग की गयी हैं और साथ-साथ इसकी नयी नयी विधियाँ भी प्रकाश में आयी हैं। मनोविज्ञान की विधियों में अन्तर्निरीक्षण विधि सबसे पुरानी विधि है जिसमें अनुभवकर्ता स्वयं अपनी मानसिक क्रियाओं एवं अवस्थाओं की जानकारी प्राप्त करता है। बाद में चलकर वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि प्रकाश में आयो जिससे प्राणी के व्यवहारों का अध्ययन करके उसकी मानसिक अवस्थाओं की जानकारी प्राप्त की जाती है। इन दोनों विधियों की अगर हम तुलना करें तो इनमें निम्नलिखित अन्तर पाते हैं
1. अन्तर्निरीक्षण विधि आत्मनिष्ठ जबकि दूसरी विधि वस्तुनिष्ठ : अन्तर्निरीक्षण विधि एक आत्मनिष्ठ (Subjective) विधि है जबकि दूसरी विधि एक वस्तुनिष्ठ विधि (Objective method) है। अन्तर्निरीक्षण का सम्बन्ध मनुष्य की अनुभूति से रहता है। वह व्यक्ति के मन में छिपी हुई क्रिया होती है जिसे दूसरे लोग अपनी आँखों से नहीं देख सकते हैं। इन्हें जानने के लिये अनुभवकर्त्ता को ही कहा जाता है और वह जो कुछ भी जानकारी प्राप्त करता है उसे ही अन्तर्निरीक्षण कहा जाता है। ठीक इसके विपरीत वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि का संबंध प्राणी के व्यवहार से होता है जिसे सभी लोग अपनी खुली नजर से देख सकते हैं तथा समान रूप से इसका निरीक्षण कर सकते हैं।
2. अन्तर्निरीक्षण अविश्वसनीय जबकि वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विश्वसनीय : अन्तर्निरीक्षण विधि एक अविश्वसनीय (Unreliable) विधि है जबकि वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि एक विश्वसनीय (Reliable) विधि है। वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि से जो सामग्रियाँ (Data) प्राप्त होती हैं वे होती हैं और दूसरे लोग भी इस निरीक्षण को दुहरा सकते हैं। इसके आधार पर किसी नियम का प्रतिपादन या सामान्यीकरण किया जा सकता है। दूसरी तरफ जो सामग्रियाँ (Data) अन्तर्निरीक्षण विधि से प्राप्त की जाती हैं, उनमें व्यक्तिगत विभिन्नताएँ पायी जाती हैं। परिणामस्वरूप इस विधि द्वारा वैज्ञानिक अध्ययन सम्भव नहीं है।
3. अमानिरीक्षण वैयक्तिक, जबकि वस्तुनिष्ठ निरीक्षण निर्वैयक्तिक : अन्तर्निरीक्षण विधि एक व्यक्तिगत विधि है जबकि वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि एक निर्वैयक्तिक (Impersonal) विधि है। इसीलिये वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि को वैज्ञानिक विधि और अन्तर्निरीक्षण विधि को अवैज्ञानिक विधि माना गया है।
4. अन्तर्निरीक्षण सीमित, किन्तु वस्तुनिष्ठ निरीक्षण व्यापक :
अन्तर्निरीक्षण विधि का उपयोग सीमित होता है जबकि वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि का उपयोग व्यापक होता है। मनोविज्ञान के प्रयोग में अन्तर्निरीक्षण का उपयोग केवल प्रयोज्य (Subject) तक ही सीमित होता है। पशु, पक्षी, शिशु आदि अपने मानसिक अनुभवों की जानकारी प्राप्त करके उसे व्यक्त नहीं कर पाते। जबकि वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि का प्रयोग व्यापक रूप से पशु, पक्षी, शिशु और असामान्य व्यक्ति पर भी होता है।
5. अन्तर्निरीक्षण अव्यावहारिक, किन्तु वस्तुनिष्ठ निरीक्षण व्यावहारिक : अन्तर्निरीक्षण विधि एक अव्यावहारिक (Impractical) विधि है; क्योंकि अन्तर्निरीक्षण विधि में एक ही व्यक्ति विचार करता है और वही व्यक्ति विषय का निरीक्षण भी करता है। इसीलिये एक ही व्यक्ति दो मानसिक क्रियाओं में बझा रहता है जो अव्यावहारिक मालूम पड़ता है। इससे यह स्पष्ट है कि अन्तर्निरीक्षण विधि एक अव्यावहारिक विधि है। वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि में प्रयोगकर्ता तथा जिस पर प्रयोग किया जा रहा है वे दो सत्ताएँ होती हैं जो वैज्ञानिक विधि के लिये आवश्यक शर्त मानी जाती हैं।
6. अन्तर्निरीक्षण में वैज्ञानिक प्रयोग असम्भव, किन्तु वस्तुनिष्ठ निरीक्षण से वैज्ञानिक निष्कर्ष सम्भव:
अन्तर्निरीक्षण विधि द्वारा वैज्ञानिक प्रयोग करना असम्भव होता है; क्योंकि इसका आधार व्यक्ति की व्यक्तिगत और आत्मनिष्ठ अनुभूति होती है। इस विधि द्वारा जो सामग्रियाँ (Data) प्राप्त होती हैं, वे सत्य (Valid) नहीं होती हैं, जबकि वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि द्वारा जो सामग्रियाँ प्राप्त होती हैं वे सत्य और विश्वसनीय होती हैं जिनके आधार पर वैज्ञानिक निष्कर्ष प्राप्त करना संभव होता है।
7. अन्तर्निरीक्षण का प्रयोग सीमित, जबकि वस्तुनिष्ठ निरीक्षण व्यापक : अन्तर्निरीक्षण विधि द्वारा किसी एक ही व्यक्ति का अध्ययन एक समय में किया जा सकता है, एक साथ अधिक व्यक्तियों का नहीं जैसे भीड़ आदि का मनोवैज्ञानिक अध्ययन इस विधि से सम्भव नहीं है। साथ ही साथ इस विधि में सांख्यिकी परिणाम भी सम्भव नहीं है, जबकि वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि के आधार पर एक ही समय में एक से अधिक व्यक्ति के व्यवहारों का अध्ययन किया जा सकता है और साथ ही साथ इसमें सांख्यिकी (Stastistical) परिणाम भी सम्भव है।
ऊपर बतलाये गये अन्तरों को जानने के बाद ऐसा लगता है कि अन्तर्निरीक्षण और वस्तुनिष्ठ निरीक्षण पूर्णत: विरोधी विधियाँ हैं। अन्तर्निरीक्षण में व्यक्ति केवल अपने मानसिक क्रियाओं का अध्ययन करता है जबकि वाह्य निरीक्षण विधि में दूसरे व्यक्ति के व्यवहारों के माध्यम से उसकी मानसिक क्रियाओं की जानकारी प्राप्त करता है। लेकिन ध्यान देने पर हम पायेंगे कि ये दोनों विधियों वास्तव में एक दूसरे की विरोधी नहीं, बल्कि सहायक एवं पूरक हैं। अन्तर्निरीक्षण विधि में जो सम्भावना रहती है कि व्यक्ति अपने मानसिक अनुभवों को छुपा ले सकता है, उसे वस्तुनिष्ठ निरीक्षण की विधि से जान लिया जा सकता है। इसी तरह वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि में जो व्यवहारों का अध्ययन किया जाता हैं और उनकी सहायता से मानसिक अवस्थाओं का पता लगाया जाता है, वह भी अन्तर्निरीक्षण द्वारा। अगर किसी व्यक्ति ने स्वयं यह अनुभव नहीं किया हो कि क्रोध या भय या इसी तरह अन्य दूसरी मानसिक अनुभूतियों में प्राणी किस तरह का व्यवहार करता है अर्थात् उसने स्वयं पहले अपना अन्तर्निरीक्षण नहीं किया है तो वह वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि के माध्यम से दूसरे की मानसिक अवस्थाओं की जानकारी नहीं प्राप्त कर सकता। से इस तरह हम पाते हैं कि दोनों विधियाँ एक दूसरे की कमियों को पूरा करती हैं। इन दोनों की सम्मिलित सहायता से प्राणी की मानसिक क्रियाओं एवं व्यवहारों का समुचित ढंग से अध्ययन किया जा सकता है। यही कारण है कि मनोविज्ञान की एक अत्यन्त उपयोगी विधि प्रायोगिक विधि (Experimental method) में दोनों को समुचित स्थान दिया गया है।
अतः इस कह सकते हैं कि दोनों विधियों एक दूसरे की पूरक या सहायक हैं, परस्पर विरोधी नहीं।
प्रश्न : मानव आँख की बनावट एवं कार्यवाही का वर्णन करें। (Describe the structure and function of human eye.)
उत्तर : जिस स्थान पर आँख जमी हुई मालूम पड़ती है उसको सॉकेट (Shocket) कहा जाता है। आँख का गोलाकार और उभरे हुए भाग को नेत्र गोलक (Eye ball) कहा जाता है जिसमें कई माँसपेशियाँ होती हैं। इन्ही माँसपेशियों के द्वारा हम अपनी आँखें ऊपर-नीचे या इधर-उधर अक्सर घूमा सकते हैं। नेत्र गोलक की तीन परतें होती हैं- (i) श्वेत पटल (Selerotic coat), (ii) मध्य पटल (Choroid) तथा दृष्टि पटल
(Retina) ऊपरी सतह श्वेत पटल कहलाती है जिसका आगे का भाग पारदर्शी होता है। इसे कॉर्निया (Cornea) कहा जाता है और कार्निया के पीछे पुतली (Pupil) होती है। पुतली उपतारा (Iris) की माँसपेशियों में बना गोल छेद होता है। इन माँसपेशियों की क्रियाओं से पुतली छोटी या बड़ी होती है। पुतली के द्वारा ही कॉर्निया से आता हुआ प्रकाश आँख के भीतरी भाग में जाता है और जब प्रकाश पुतली द्वारा आँख में प्रवेश करता है तो इस समय पुतली का आकार छोटा या बड़ा होता है। जब प्रकाश की तीव्रता अधिक होती है। तो पुतली की आकार बढ़ जाता है। पुतली का आकार को बड़ा छोटा करने का काम परितारिका का है। परितारिक के ठीक पीछे बीक्ष (Lens) होता है। पुतली से होकर प्रकाश लेन्स पर पड़ता है, लेन्स इस प्रकाश को आँख के भीतरी सतह पर पहुंचा देता है। लेन्स का आकार भी घटता बढ़ता है। लेन्स का आकार को घटाने बढ़ाने का काम पक्ष्माभिकी पेशियों (Ciliary muscles) का होता है। ये माँसपेशियाँ लेन्स के दोनों किनारों पर लगी होती हैं। दूर की चीज देखते समय ये माँसपेशियाँ फैल जाती हैं जिसके कारण लेन्स बढ़ा दिखाई पड़ता है। इसी तरह नजदीक की चीजें देखते समय ये पेशियाँ सिकुड़ जाती हैं जिसके कारण लेन्स छोटा दिखाई पड़ता है।
कॉर्निया (Cornea) तथा वीक्ष (Lens) के बीच एक झिल्ली के समान पदार्थ रहता है जिसे जल-द्रव्य (Aqucous humour) कहा जाता है। आँख में एक ऐसा ही दूसरा द्रव्य भी रहता है। जिसे काँच-द्रव्य (Vitreous humour) कहा जाता है। ये पदार्थ आँख के आकार को गोल बनाये रखने में सहायता पहुंचाते हैं। तीसरी परत को अक्षिपट (Rerina) कहा जाता है। इसके अन्दर दृष्टि ग्राहक (Visual receptors) का स्थान होता है। दृष्टि ग्राहक दो प्रकार के होते हैं जिन्हें दण्ड तथा सूचियाँ (Rods and cones) कहा जाता है। दण्ड तथा सूचियाँ बहुत ही छोटे कोश के रूप में होती हैं। इनके लम्बे स्नायु रहते हैं और ये पूरे रेटिना पर छाये हुए होते हैं। दण्ड या शलाकाएँ आकार में लम्बी और पतली होती हैं जबकि सूचियाँ मोटी और छोटी दण्ड अन्धकार या धूमिल प्रकाश में क्रियाशील होती है जबकि सूचियाँ तीब्र प्रकाश में दण्ड तथा सूचियों की स्नायु एक स्थान पर एकत्रित होती हैं और एक पतले धागे के समान बन जाती है। स्नायु का यह भाग दृष्टि स्नायु कहलाता है जिस स्थान पर दृष्टि स्नायु रेटिना के बाहर निकल जाता है। उसे अन्य बिन्दु (Blind spot) कहा जाता है।
अन्य बिन्दु में केवल स्नायु रहते हैं, इनके कोश नहीं होते हैं। अन्य बिन्दु के निकट एक छोटा-सा भाग होता है। जिनमें केवल सूचियाँ पायी जाती हैं, इसमें दण्ड नहीं रहते। इसे पीत बिन्दु (Yellow spot) कहा जाता है। पौत बिन्दु के बीच में एक छोटे से पैसे हुए स्थान को फोविया (Fovea) कहा जाता है। यह एक ऐसा स्थान है जहाँ पर वस्तुओं का स्पष्ट दृश्य प्राप्त होता है। फोविया में चूँकि केवल सूचियाँ पायी जाती हैं इसलिए इसे स्पष्टतम दृश्य बिन्दु (Point of the clearest vision) कहा जाता है (बनावट के लिए डॉ. इन्दुभूषण की प्रारम्भिक मनोविज्ञान की पृष्ठ संख्या 82 देखें)
अब दृष्टि संवेदना किस प्रकार होता है, इस प्रश्न पर विचार करेंगे दृष्टि संवेदना के लिए उद्दीपन हैं प्रकश के किरणें प्रकाश की किरणें जब किसी वस्तु से टकरा कर लौटती है तो उसे हमारी आँख ग्रहण करती है। प्रकाश की किरणें कॉर्निया (Cornea) से होकर पुतली के माध्यम से लेन्स (Lens) पर पड़ती है। लेन्स इन किरणों को बिखरा देता है। जिसे दण्ड और सूचियाँ ग्रहण कर उत्तेजित हो जाती हैं। इनके उत्तेजित होते ही एक तंत्रिका आबेग उत्पन्न होता है जो दृष्टि तंत्र (Optic nerve) के सहारे होता हुआ मस्तिष्क के विशिष्ट भाग पृष्ठ पालि (Occipital lobe) में पहुंचता है जिससे हम दृष्टि संवेदना का अनुभव करते हैं।
प्रश्न : प्रत्यक्षीकरण में कौन-कौन सी क्रियाएँ सन्निहित हैं। एक उदाहरण के सहारे अपने उत्तर को स्पष्ट करें।
(What are the processes involved in perception? Illustrate your answer with an example.)
अथवा
प्रत्यक्षीकरण में संलग्न प्रक्रियाओं का विश्लेषण करें।
अथवा
फूल के प्रत्यक्षीकरण में संलग्न प्रक्रियाओं का विश्लेषण करें।
(Explain the processes involved in perceiving a flower.)
उत्तर : प्रत्यक्षीकरण एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है। यदि इसका हम विश्लेषण करें तो हम इसके अन्तर्गत निम्नलिखित मानसिक प्रक्रियाएँ पायेंगे --
1. ग्राहक प्रक्रिया (Receptor process);
2. प्रतीकात्मक प्रक्रिया (Symbolic process);
3. एकीकरण प्रक्रिया (Unification process);
4. रागात्मक प्रक्रिया (Affective process)।
1. ग्राहक प्रक्रिया : इस प्रक्रिया को ज्ञानवाही नाड़ी सम्बन्धी अवस्था भी कहते हैं। इस प्रक्रिया में दो चीजों की आवश्यकता पड़ती है (क) उत्तेजना (ख) ज्ञानेन्द्रिय किसी भी प्रत्यक्षीकरण के लिए किसी उत्तेजना और उसके साथ-साथ उपयुक्त ज्ञानेन्द्रिय का होना आवश्यक है। जब ज्ञानेन्द्रिय किसी उत्तेजक को ग्रहण करती है तो वहाँ फूल को देखने, सूँघने और स्पर्श करने के बाद ग्राहक प्रक्रिया काम करने लगती है। लेकिन इसका यहीं अंत नहीं हो जाता है। फूल को देखने, स्पर्श करने और सूंघने से हमारे मन में उस फूल से सम्बन्धित बहुत से गत अनुभव (Past-experience) जग जाते हैं। जैसे, फूल को देखकर किसी को अपने विवाह का स्मरण हो आता है तो किसी को अपने प्रिय मित्र की विदाई की बेला याद आ जाती है। इस तरह से फूल की उपस्थिति हमारे इन अनुभवों के लिए एक प्रतीक या प्रतिनिधि का काम करती है। इसलिए प्रत्यक्षीकरण की इस क्रिया को प्रतीकात्मक प्रक्रिया (Symbolic process) कहते है!
कभी-कभी उत्तेजक विशेष के प्रत्यक्षीकरण के साथ किसी न किसी तरह का संवेग भी उत्पन्न होता है। फूल को देखकर प्रसन्नता भी हो सकती है और दुःख भी। रागात्मक अनुभव को हम प्रत्यक्षीकण की रागात्मक प्रक्रिया कहते हैं।
जब हमें फूल का प्रत्यक्षीकरण होता है तो फूल की पंखुड़ियों को हम अलग-अलग रूप से नहीं देखते हैं, बल्कि सम्पूर्ण रूप से देखते हैं। प्रत्यक्षीकरण को इस प्रक्रिया को एकीकरण प्रक्रिया (Unification process) की संज्ञा दी जाती है।
इस तरह यदि हम फूल के प्रत्यक्षीकरण का विश्लेषण करें तो हमें इसके अन्तर्गत ग्राहक प्रक्रिया प्रतीकात्मक प्रक्रिया, एकीकरण प्रक्रिया और रागात्मक प्रक्रिया मिलती हैं।
प्रश्न : प्रत्यक्षात्मक संगठन से क्या समझते हैं? गेस्टाल्ट के
प्रत्यक्षात्मक संगठनात्मक दृष्टिकोण का वर्णन करें।
(What do you mean by perceptual organisation? Discuss the Gestalt perceptual-organisational view points.)
अथवा
.प्रत्यक्षीकरण के गेस्टाल्ट सिद्धांत का मूल्यांकन।
उत्तर : आकार और आधार भूमि के महत्व पर विचार करते हुए जेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों (Gestalt Psychologists) ने यह बतलाया है कि हमें किसी वस्तु का आकार के रूप में प्रत्यक्षीकरण होता है। जब दृष्टि क्षेत्र (Visual field) में अनेक उत्तेजनाएँ आती हैं, तब उनमें से कुछ अलग पूर्ण इकाई के रूप में दीख पड़ती है। तथा कुछ इस पूर्ण इकाई की पृष्ठभूमि के रूप में इस सम्बन्ध में वर्दिमीयर (Wertheimer) का अध्ययन मुख्य है। उन्होंने अपने अध्ययन के आधार पर उन तत्वों को बताया जिनके आधार पर कई उत्तेजनाएँ आपस में मिलकर एक इकाई (unit) का रूप ग्रहण कर लेती हैं। वे कारण निम्न हैं
1. समीपता : क्षेत्र के तत्व, जो एक दूसरे के समीप होते हैं, आसानी से आपस में मिले हुए या एक इकाई के रूप में दिख पड़ते हैं। चित्र सं-1 में उपस्थित छः बिन्दुओं को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। समीपता के कारण ही हमें ये विन्दु अलग-अलग न दीखकर दो-दो इकाई में दिखाई पड़ते हैं। अतः समीपता के आधार पर इकाई के रूप में प्रत्यक्षीकरण होता है।
2. समानता : दृष्टि क्षेत्र के उन तत्त्वों को, जो रंग अथवा आकार में एक तरह के होते हैं, हम एक इकाई के रूप में देखते हैं। उदाहरण के लिए, यदि लाल, नीले, और पीले रंग के बिन्दु उत्तेजना के रूप में उपस्थित किये जायें, तो हम लाल विन्दुओं को एक इकाई के रूप में देखेगें। समान आकार के विन्दुओं का भी प्रत्यक्षीकरण एक इकाई के रूप में होता है। चित्र सं-2 और 3 से यह बात मालूम हो रही है।
3. अविछिन्नता (Continuity) : क्षेत्र के वे तत्त्व जो एक ही साथ एक निश्चित दिशा की ओर जाते हुए दिख पड़ते हैं, प्रत्यक्षीकरण एक इकाई के रूप में हो होता है। गति-सादृश्य के कारण वे आपस में एक पूर्ण इकाई का रूप ग्रहण कर लेते हैं, जैसा कि चित्र सं-4 से स्पष्ट है।
4. उत्तम आकार (Good figure) : जब दृष्टि क्षेत्र के कुछ तत्त्व मिलकर एक ऐसा आकार बना लेते हैं, जो अपनी पूर्णता के कारण अच्छा मालूम पड़ता है, तब हमें आसानी से उसका एक इकाई के रूप में प्रत्यक्षीकरण होता है। जेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि मनुष्य किसी, आकार में उपस्थित रिक्त स्थानों को भरकर उसे पूर्ण इकाई के रूप में ही देखता है। अपूर्ण आकार मानसिक संतुलन को भंग कर देता है तथा पूर्ण आकार मानसिक संतुलन को बनाये रखता है। इसलिए, मनुष्य को स्वभावतः पूर्ण आकार का ही प्रत्यक्षीकरण होता हैं, अपूर्ण आकार का नहीं उत्तम आकार के उदाहरणस्वरूप चित्र सं-5 और 6 को यहाँ पर दिया जा रहा है।
5. मानस-वृत्ति (Mental Set) का प्रभाव : अपनी मानस-वृत्ति के अनुकूल : ही मुनष्य किसी वस्तु या परिस्थिति को पूर्ण इकाई का प्रत्यक्षीकरण करता है, तभी तो एक ही वस्तु अथवा परिस्थिति का प्रतक्षीकरण विभिन्न व्यक्यि को विभिन्न तरह का होता है। अतएव उनका प्रत्यक्षीकरण भी विभिन्न प्रकार का ही होता है।
मानस-वृत्ति प्रायः दो तरह की होती है-
1. अभ्यासजन्य (Habitual) तथा 2. तात्कालिक या क्षणिक (Immediate or Momentary) अभ्यासजन्य मानस-वृत्ति आदतों से उत्पन्न होती है। अपनी अलग-अलग आदतों के कारण ही एक मनोवैज्ञानिक प्रायः वस्तु अथवा परिस्थिति को मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखता है। यह कहना उचित है कि किसी भी वस्तु अथवा परिस्थिति का प्रत्यक्षीकरण ज्यों-का-त्यों नहीं होता वरन् वह व्यक्ति की मानस-वृत्ति से अनुरंजित हुआ करता है तभी तो प्रकृति की कोई भी वस्तु सभी वैज्ञानिकों को एक-सी नहीं लगती। क्षणिक मानस-वृत्ति का भी प्रत्यक्षीकरण पर कम प्रभाव नहीं पड़ता है। जब किसी व्यक्ति की मानस वृत्ति प्रबल रूप से किसी वस्तु को देखने अथवा शब्द को सुनने की ओर होती है, उसे बिना किसी वस्तु के भी उस वस्तु के दर्शन होते हैं तथा बिना शब्द के भी उस शब्द की प्रत्यक्षानुभूति होती है। इस प्रकार से मानस-वृत्ति के आधार पर व्यक्ति प्रत्यक्ष करता है।
6. पूर्वानुभूति (Past experience) : पूर्वानुभूति से प्रभावित होकर भी मनुष्य किसी भी वस्तु को समग्र रूप में देखता है। उदाहरण के लिए, यदि कुछ शब्द एक साथ छपे हुए हों और उनके बीच में जगह नहीं छोड़ी गई हो, तो भी हम उन शब्दों को अलग-अलग एक पूर्ण शब्द के रूप में पढ़ते हैं। उन्हें अक्षरों का समूह मात्र नहीं मानते। इसका प्रधान कारण है पूर्वानुभूति उदाहरणार्थ वह अच्छा लड़का है।
प्रश्न : सीखना क्रिया का स्वरूप स्पष्ट करें शिक्षण वक्र की व्याख्या करें। : (Explain the nature of Learning, and Learning (urve.)
अथवा,
सीखना क्या है? शिक्षण वक्र की व्याख्या करें। (What is Learnin? Explain Learning Curve.)
उत्तर : 'सीखना' शब्द का प्रयोग हम अपने दैनिक जीवन उठते-बैठते करते हैं। लेकिन मनोवैज्ञानिक इस शब्द का इस्तेमाल अलग ढंग से करते हैं। उनके अनुसार सीखना प्राणी के व्यवहार में होने वाले परिवर्तन को कहते हैं अर्थात् सीखना वह मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा हमारे व्यवहार में किसी प्रकार का परिवर्तन और परिमार्जन होता है। जैसे, सीखने प्राणी की क्रियात्मक क्षमता बढ़ती है, इससे हमारे व्यवहार में संशोधन होता है. अर्थात् हम जो पहले नहीं जानते उसे जान जाते हैं। इस दृष्टि से सीखना एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है, जो नयी परिस्थिति से अभियोजन के लिए प्राणी के व्यवहार में परिवर्त्तन लाती हैं।
सीखने के सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों ने अपने विचार अलग-अलग ढंग से व्यक्त किये हैं। लेकिन सभी ने इस बात पर जोर दिया है कि सीखने की प्रक्रिया द्वारा व्यवहारों में परिवर्तन आता है और परिस्थिति के साथ अभियोजन के क्रम में प्राणी का व्यवहार परिमार्जित होता है। जैसे, साइकिल चलाना सीखने की क्रिया में व्यक्ति के व्यवहार में
परिवर्तन और परिमार्जन होता है। साइकिल चलाना सीखने के पहले व्यक्ति जब साइकिल चलाने के लिए साइकिल पर चढ़ने का प्रयास करता था तब गिर पड़ता है, साइकिल सीधी नहीं रख पाता है, साइकिल तेजों से नहीं चला पाता है। लेकिन वही व्यक्ति सीखने के बाद साइकिल तेजी से चला लेता है और चढ़ने पर गिरता नहीं स्पष्ट है उस व्यक्ति का स्वाभाविक व्यवहार में परिवर्तन और परिमार्जन हो गया है। इस प्रकार व्यवहार एवं
अनुभूति में परिवर्तन और परिमार्जन को ही सीखना कहते हैं।
'सीखना' क्रिया की विशेषताएँ : उपर्युक्त विवेचना के आधार पर सीखने की क्रिया में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं!
1. सीखने की क्रिया द्वारा व्यवहार में परिवर्तन होता है।
2. व्यवहार का यह परिवर्तन काफी समय तक स्थायी बना रहता है। जैसे,कोई पहाड़ा सीख लेता है तो वह उसे बहुत समय तक याद रखता है। चूँकि व्यक्ति को सीखी हुई बातों का स्मरण रहता है इसलिए उसे सीखने की क्रिया द्वारा अभियोजन में सहायता मिलती है।
3. सीखने की क्रिया द्वारा व्यवहार में जो परिवर्तन होता है वह आकस्मिक नहीं होता है, बल्कि व्यक्ति के अनुभव पर आधारित होता है।उत्तर : जिस स्थान पर आँख जमी हुई मालूम पड़ती है उसको सॉकेट (Shocket) कहा जाता है। आँख का गोलाकार और उभरे हुए भाग को नेत्र गोलक (Eye ball) कहा जाता है जिसमें कई माँसपेशियाँ होती हैं। इन्ही माँसपेशियों के द्वारा हम अपनी आँखें ऊपर-नीचे या इधर-उधर अक्सर घूमा सकते हैं। नेत्र गोलक की तीन परतें होती हैं- (i) श्वेत पटल (Selerotic coat), (ii) मध्य पटल (Choroid) तथा दृष्टि पटल
(Retina) ऊपरी सतह श्वेत पटल कहलाती है जिसका आगे का भाग पारदर्शी होता है। इसे कॉर्निया (Cornea) कहा जाता है और कार्निया के पीछे पुतली (Pupil) होती है। पुतली उपतारा (Iris) की माँसपेशियों में बना गोल छेद होता है। इन माँसपेशियों की क्रियाओं से पुतली छोटी या बड़ी होती है। पुतली के द्वारा ही कॉर्निया से आता हुआ प्रकाश आँख के भीतरी भाग में जाता है और जब प्रकाश पुतली द्वारा आँख में प्रवेश करता है तो इस समय पुतली का आकार छोटा या बड़ा होता है। जब प्रकाश की तीव्रता अधिक होती है। तो पुतली की आकार बढ़ जाता है। पुतली का आकार को बड़ा छोटा करने का काम परितारिका का है। परितारिक के ठीक पीछे बीक्ष (Lens) होता है। पुतली से होकर प्रकाश लेन्स पर पड़ता है, लेन्स इस प्रकाश को आँख के भीतरी सतह पर पहुंचा देता है। लेन्स का आकार भी घटता बढ़ता है। लेन्स का आकार को घटाने बढ़ाने का काम पक्ष्माभिकी पेशियों (Ciliary muscles) का होता है। ये माँसपेशियाँ लेन्स के दोनों किनारों पर लगी होती हैं। दूर की चीज देखते समय ये माँसपेशियाँ फैल जाती हैं जिसके कारण लेन्स बढ़ा दिखाई पड़ता है। इसी तरह नजदीक की चीजें देखते समय ये पेशियाँ सिकुड़ जाती हैं जिसके कारण लेन्स छोटा दिखाई पड़ता है।
कॉर्निया (Cornea) तथा वीक्ष (Lens) के बीच एक झिल्ली के समान पदार्थ रहता है जिसे जल-द्रव्य (Aqucous humour) कहा जाता है। आँख में एक ऐसा ही दूसरा द्रव्य भी रहता है। जिसे काँच-द्रव्य (Vitreous humour) कहा जाता है। ये पदार्थ आँख के आकार को गोल बनाये रखने में सहायता पहुंचाते हैं। तीसरी परत को अक्षिपट (Rerina) कहा जाता है। इसके अन्दर दृष्टि ग्राहक (Visual receptors) का स्थान होता है। दृष्टि ग्राहक दो प्रकार के होते हैं जिन्हें दण्ड तथा सूचियाँ (Rods and cones) कहा जाता है। दण्ड तथा सूचियाँ बहुत ही छोटे कोश के रूप में होती हैं। इनके लम्बे स्नायु रहते हैं और ये पूरे रेटिना पर छाये हुए होते हैं। दण्ड या शलाकाएँ आकार में लम्बी और पतली होती हैं जबकि सूचियाँ मोटी और छोटी दण्ड अन्धकार या धूमिल प्रकाश में क्रियाशील होती है जबकि सूचियाँ तीब्र प्रकाश में दण्ड तथा सूचियों की स्नायु एक स्थान पर एकत्रित होती हैं और एक पतले धागे के समान बन जाती है। स्नायु का यह भाग दृष्टि स्नायु कहलाता है जिस स्थान पर दृष्टि स्नायु रेटिना के बाहर निकल जाता है। उसे अन्य बिन्दु (Blind spot) कहा जाता है।
अन्य बिन्दु में केवल स्नायु रहते हैं, इनके कोश नहीं होते हैं। अन्य बिन्दु के निकट एक छोटा-सा भाग होता है। जिनमें केवल सूचियाँ पायी जाती हैं, इसमें दण्ड नहीं रहते। इसे पीत बिन्दु (Yellow spot) कहा जाता है। पौत बिन्दु के बीच में एक छोटे से पैसे हुए स्थान को फोविया (Fovea) कहा जाता है। यह एक ऐसा स्थान है जहाँ पर वस्तुओं का स्पष्ट दृश्य प्राप्त होता है। फोविया में चूँकि केवल सूचियाँ पायी जाती हैं इसलिए इसे स्पष्टतम दृश्य बिन्दु (Point of the clearest vision) कहा जाता है (बनावट के लिए डॉ. इन्दुभूषण की प्रारम्भिक मनोविज्ञान की पृष्ठ संख्या 82 देखें)
अब दृष्टि संवेदना किस प्रकार होता है, इस प्रश्न पर विचार करेंगे दृष्टि संवेदना के लिए उद्दीपन हैं प्रकश के किरणें प्रकाश की किरणें जब किसी वस्तु से टकरा कर लौटती है तो उसे हमारी आँख ग्रहण करती है। प्रकाश की किरणें कॉर्निया (Cornea) से होकर पुतली के माध्यम से लेन्स (Lens) पर पड़ती है। लेन्स इन किरणों को बिखरा देता है। जिसे दण्ड और सूचियाँ ग्रहण कर उत्तेजित हो जाती हैं। इनके उत्तेजित होते ही एक तंत्रिका आबेग उत्पन्न होता है जो दृष्टि तंत्र (Optic nerve) के सहारे होता हुआ मस्तिष्क के विशिष्ट भाग पृष्ठ पालि (Occipital lobe) में पहुंचता है जिससे हम दृष्टि संवेदना का अनुभव करते हैं।
प्रश्न : प्रत्यक्षीकरण में कौन-कौन सी क्रियाएँ सन्निहित हैं। एक उदाहरण के सहारे अपने उत्तर को स्पष्ट करें।
(What are the processes involved in perception? Illustrate your answer with an example.)
अथवा
प्रत्यक्षीकरण में संलग्न प्रक्रियाओं का विश्लेषण करें।
अथवा
फूल के प्रत्यक्षीकरण में संलग्न प्रक्रियाओं का विश्लेषण करें।
(Explain the processes involved in perceiving a flower.)
उत्तर : प्रत्यक्षीकरण एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है। यदि इसका हम विश्लेषण करें तो हम इसके अन्तर्गत निम्नलिखित मानसिक प्रक्रियाएँ पायेंगे --
1. ग्राहक प्रक्रिया (Receptor process);
2. प्रतीकात्मक प्रक्रिया (Symbolic process);
3. एकीकरण प्रक्रिया (Unification process);
4. रागात्मक प्रक्रिया (Affective process)।
1. ग्राहक प्रक्रिया : इस प्रक्रिया को ज्ञानवाही नाड़ी सम्बन्धी अवस्था भी कहते हैं। इस प्रक्रिया में दो चीजों की आवश्यकता पड़ती है (क) उत्तेजना (ख) ज्ञानेन्द्रिय किसी भी प्रत्यक्षीकरण के लिए किसी उत्तेजना और उसके साथ-साथ उपयुक्त ज्ञानेन्द्रिय का होना आवश्यक है। जब ज्ञानेन्द्रिय किसी उत्तेजक को ग्रहण करती है तो वहाँ फूल को देखने, सूँघने और स्पर्श करने के बाद ग्राहक प्रक्रिया काम करने लगती है। लेकिन इसका यहीं अंत नहीं हो जाता है। फूल को देखने, स्पर्श करने और सूंघने से हमारे मन में उस फूल से सम्बन्धित बहुत से गत अनुभव (Past-experience) जग जाते हैं। जैसे, फूल को देखकर किसी को अपने विवाह का स्मरण हो आता है तो किसी को अपने प्रिय मित्र की विदाई की बेला याद आ जाती है। इस तरह से फूल की उपस्थिति हमारे इन अनुभवों के लिए एक प्रतीक या प्रतिनिधि का काम करती है। इसलिए प्रत्यक्षीकरण की इस क्रिया को प्रतीकात्मक प्रक्रिया (Symbolic process) कहते है!
कभी-कभी उत्तेजक विशेष के प्रत्यक्षीकरण के साथ किसी न किसी तरह का संवेग भी उत्पन्न होता है। फूल को देखकर प्रसन्नता भी हो सकती है और दुःख भी। रागात्मक अनुभव को हम प्रत्यक्षीकण की रागात्मक प्रक्रिया कहते हैं।
जब हमें फूल का प्रत्यक्षीकरण होता है तो फूल की पंखुड़ियों को हम अलग-अलग रूप से नहीं देखते हैं, बल्कि सम्पूर्ण रूप से देखते हैं। प्रत्यक्षीकरण को इस प्रक्रिया को एकीकरण प्रक्रिया (Unification process) की संज्ञा दी जाती है।
इस तरह यदि हम फूल के प्रत्यक्षीकरण का विश्लेषण करें तो हमें इसके अन्तर्गत ग्राहक प्रक्रिया प्रतीकात्मक प्रक्रिया, एकीकरण प्रक्रिया और रागात्मक प्रक्रिया मिलती हैं।
प्रश्न : प्रत्यक्षात्मक संगठन से क्या समझते हैं? गेस्टाल्ट के
प्रत्यक्षात्मक संगठनात्मक दृष्टिकोण का वर्णन करें।
(What do you mean by perceptual organisation? Discuss the Gestalt perceptual-organisational view points.)
अथवा
.प्रत्यक्षीकरण के गेस्टाल्ट सिद्धांत का मूल्यांकन।
उत्तर : आकार और आधार भूमि के महत्व पर विचार करते हुए जेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों (Gestalt Psychologists) ने यह बतलाया है कि हमें किसी वस्तु का आकार के रूप में प्रत्यक्षीकरण होता है। जब दृष्टि क्षेत्र (Visual field) में अनेक उत्तेजनाएँ आती हैं, तब उनमें से कुछ अलग पूर्ण इकाई के रूप में दीख पड़ती है। तथा कुछ इस पूर्ण इकाई की पृष्ठभूमि के रूप में इस सम्बन्ध में वर्दिमीयर (Wertheimer) का अध्ययन मुख्य है। उन्होंने अपने अध्ययन के आधार पर उन तत्वों को बताया जिनके आधार पर कई उत्तेजनाएँ आपस में मिलकर एक इकाई (unit) का रूप ग्रहण कर लेती हैं। वे कारण निम्न हैं
1. समीपता : क्षेत्र के तत्व, जो एक दूसरे के समीप होते हैं, आसानी से आपस में मिले हुए या एक इकाई के रूप में दिख पड़ते हैं। चित्र सं-1 में उपस्थित छः बिन्दुओं को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। समीपता के कारण ही हमें ये विन्दु अलग-अलग न दीखकर दो-दो इकाई में दिखाई पड़ते हैं। अतः समीपता के आधार पर इकाई के रूप में प्रत्यक्षीकरण होता है।
2. समानता : दृष्टि क्षेत्र के उन तत्त्वों को, जो रंग अथवा आकार में एक तरह के होते हैं, हम एक इकाई के रूप में देखते हैं। उदाहरण के लिए, यदि लाल, नीले, और पीले रंग के बिन्दु उत्तेजना के रूप में उपस्थित किये जायें, तो हम लाल विन्दुओं को एक इकाई के रूप में देखेगें। समान आकार के विन्दुओं का भी प्रत्यक्षीकरण एक इकाई के रूप में होता है। चित्र सं-2 और 3 से यह बात मालूम हो रही है।
3. अविछिन्नता (Continuity) : क्षेत्र के वे तत्त्व जो एक ही साथ एक निश्चित दिशा की ओर जाते हुए दिख पड़ते हैं, प्रत्यक्षीकरण एक इकाई के रूप में हो होता है। गति-सादृश्य के कारण वे आपस में एक पूर्ण इकाई का रूप ग्रहण कर लेते हैं, जैसा कि चित्र सं-4 से स्पष्ट है।
4. उत्तम आकार (Good figure) : जब दृष्टि क्षेत्र के कुछ तत्त्व मिलकर एक ऐसा आकार बना लेते हैं, जो अपनी पूर्णता के कारण अच्छा मालूम पड़ता है, तब हमें आसानी से उसका एक इकाई के रूप में प्रत्यक्षीकरण होता है। जेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि मनुष्य किसी, आकार में उपस्थित रिक्त स्थानों को भरकर उसे पूर्ण इकाई के रूप में ही देखता है। अपूर्ण आकार मानसिक संतुलन को भंग कर देता है तथा पूर्ण आकार मानसिक संतुलन को बनाये रखता है। इसलिए, मनुष्य को स्वभावतः पूर्ण आकार का ही प्रत्यक्षीकरण होता हैं, अपूर्ण आकार का नहीं उत्तम आकार के उदाहरणस्वरूप चित्र सं-5 और 6 को यहाँ पर दिया जा रहा है।
5. मानस-वृत्ति (Mental Set) का प्रभाव : अपनी मानस-वृत्ति के अनुकूल : ही मुनष्य किसी वस्तु या परिस्थिति को पूर्ण इकाई का प्रत्यक्षीकरण करता है, तभी तो एक ही वस्तु अथवा परिस्थिति का प्रतक्षीकरण विभिन्न व्यक्यि को विभिन्न तरह का होता है। अतएव उनका प्रत्यक्षीकरण भी विभिन्न प्रकार का ही होता है।
मानस-वृत्ति प्रायः दो तरह की होती है-
1. अभ्यासजन्य (Habitual) तथा 2. तात्कालिक या क्षणिक (Immediate or Momentary) अभ्यासजन्य मानस-वृत्ति आदतों से उत्पन्न होती है। अपनी अलग-अलग आदतों के कारण ही एक मनोवैज्ञानिक प्रायः वस्तु अथवा परिस्थिति को मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखता है। यह कहना उचित है कि किसी भी वस्तु अथवा परिस्थिति का प्रत्यक्षीकरण ज्यों-का-त्यों नहीं होता वरन् वह व्यक्ति की मानस-वृत्ति से अनुरंजित हुआ करता है तभी तो प्रकृति की कोई भी वस्तु सभी वैज्ञानिकों को एक-सी नहीं लगती। क्षणिक मानस-वृत्ति का भी प्रत्यक्षीकरण पर कम प्रभाव नहीं पड़ता है। जब किसी व्यक्ति की मानस वृत्ति प्रबल रूप से किसी वस्तु को देखने अथवा शब्द को सुनने की ओर होती है, उसे बिना किसी वस्तु के भी उस वस्तु के दर्शन होते हैं तथा बिना शब्द के भी उस शब्द की प्रत्यक्षानुभूति होती है। इस प्रकार से मानस-वृत्ति के आधार पर व्यक्ति प्रत्यक्ष करता है।
6. पूर्वानुभूति (Past experience) : पूर्वानुभूति से प्रभावित होकर भी मनुष्य किसी भी वस्तु को समग्र रूप में देखता है। उदाहरण के लिए, यदि कुछ शब्द एक साथ छपे हुए हों और उनके बीच में जगह नहीं छोड़ी गई हो, तो भी हम उन शब्दों को अलग-अलग एक पूर्ण शब्द के रूप में पढ़ते हैं। उन्हें अक्षरों का समूह मात्र नहीं मानते। इसका प्रधान कारण है पूर्वानुभूति उदाहरणार्थ वह अच्छा लड़का है।
प्रश्न : सीखना क्रिया का स्वरूप स्पष्ट करें शिक्षण वक्र की व्याख्या करें। : (Explain the nature of Learning, and Learning (urve.)
अथवा,
सीखना क्या है? शिक्षण वक्र की व्याख्या करें। (What is Learnin? Explain Learning Curve.)
उत्तर : 'सीखना' शब्द का प्रयोग हम अपने दैनिक जीवन उठते-बैठते करते हैं। लेकिन मनोवैज्ञानिक इस शब्द का इस्तेमाल अलग ढंग से करते हैं। उनके अनुसार सीखना प्राणी के व्यवहार में होने वाले परिवर्तन को कहते हैं अर्थात् सीखना वह मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा हमारे व्यवहार में किसी प्रकार का परिवर्तन और परिमार्जन होता है। जैसे, सीखने प्राणी की क्रियात्मक क्षमता बढ़ती है, इससे हमारे व्यवहार में संशोधन होता है. अर्थात् हम जो पहले नहीं जानते उसे जान जाते हैं। इस दृष्टि से सीखना एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है, जो नयी परिस्थिति से अभियोजन के लिए प्राणी के व्यवहार में परिवर्त्तन लाती हैं।
सीखने के सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों ने अपने विचार अलग-अलग ढंग से व्यक्त किये हैं। लेकिन सभी ने इस बात पर जोर दिया है कि सीखने की प्रक्रिया द्वारा व्यवहारों में परिवर्तन आता है और परिस्थिति के साथ अभियोजन के क्रम में प्राणी का व्यवहार परिमार्जित होता है। जैसे, साइकिल चलाना सीखने की क्रिया में व्यक्ति के व्यवहार में
परिवर्तन और परिमार्जन होता है। साइकिल चलाना सीखने के पहले व्यक्ति जब साइकिल चलाने के लिए साइकिल पर चढ़ने का प्रयास करता था तब गिर पड़ता है, साइकिल सीधी नहीं रख पाता है, साइकिल तेजों से नहीं चला पाता है। लेकिन वही व्यक्ति सीखने के बाद साइकिल तेजी से चला लेता है और चढ़ने पर गिरता नहीं स्पष्ट है उस व्यक्ति का स्वाभाविक व्यवहार में परिवर्तन और परिमार्जन हो गया है। इस प्रकार व्यवहार एवं
अनुभूति में परिवर्तन और परिमार्जन को ही सीखना कहते हैं।
'सीखना' क्रिया की विशेषताएँ : उपर्युक्त विवेचना के आधार पर सीखने की क्रिया में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं!
1. सीखने की क्रिया द्वारा व्यवहार में परिवर्तन होता है।
2. व्यवहार का यह परिवर्तन काफी समय तक स्थायी बना रहता है। जैसे,कोई पहाड़ा सीख लेता है तो वह उसे बहुत समय तक याद रखता है। चूँकि व्यक्ति को सीखी हुई बातों का स्मरण रहता है इसलिए उसे सीखने की क्रिया द्वारा अभियोजन में सहायता मिलती है।
4. सीखने के पीछे कोई उद्देश्य या प्रेरणा छिपी होती है जिससे प्रेरित होकर प्राणी किसी विषय को सीखने के लिए प्रयत्नशील रहता है। 5. सीखने से व्यवहार में जो परिवर्तन होता है, उसे मापा जा सकता है। प्रयोगशाला में प्रयोगों के आधार पर सीखने की क्रिया की मात्रा जानने के लिए व्यवहार के परिवर्तन का अध्ययन किया जाता है।
शिक्षण वक्र : शिक्षण के गतिक्रम को जब ग्राफ द्वारा दिखलाया जाय याष्ट किया जाय तो इसे शिक्षण वक्र (Learning curve) कहा जाता है। शिक्षण वक्र द्वारा शिक्षण की उन्नति, अवनित, अशुद्धियों की गति, अभ्यास, थकावट आदि के प्रभाव को व्यक्त किया जा सकता है।
शिक्षण वक्र का स्वरूप (Nature of learning curve) :
सामान्य शिक्षण वक्र में आरम्भ में उन्नति देखी जाती है तथा बाद में अवनति इसका कारण यह है कि शुरू में शिक्षण कर्त्ता में उत्साह एवं ताजगी रहती है। इसके साथ ही शुरू में शिक्षण कर्त्ता के लिए विषय नया रहता है, इसलिये विषय में वह काफी अभिरुचि रखता है तथा वह सीखने में सचेष्ट रहता है। लेकिन बाद में चलकर शिक्षण वक्र में अवनति दृष्टिगोचर होने लगती है, क्योंकि शिक्षण कर्त्ता के ऊपर थकावट का प्रभाव पड़ने लगता है।
तथा उसके लिये विषय भी नवीन नहीं रह जाता। यहाँ पर यह बात उल्लेखनीय है कि शिक्षण वक्र के प्रारम्भ में थोड़ी अवनति भी दृष्टिगोचर होती है, क्योंकि शिक्षण-कर्ता परिस्थिति से पूर्वपरिचित नहीं रहता। लेकिन कुछ प्रयासों के पश्चात् शिक्षण वक्र में उन्नति के होने लगती है, क्योंकि वह उस कार्य के स्वरूप से परिचित हो जाता है। शिक्षण वक्र का वह विन्दु जहाँ कि शिक्षण वक्र में न तो किसी प्रकार की उन्नति होती है, न तो अवनतिः शिक्षण का पठार (Plateau of learning) कहलाता है। वह सीमा जहाँ पर शिक्षण वक्र का अंतिम चढ़ाव होता है, उसे दैहिक सीमा (Physiological limit) कहा जाता है। इससे अधिक शिक्षण में उन्नति नहीं हो सकती। अतः यह चढ़ाव उसकी योग्यता की सीमा बन जाती है।
शिक्षण वक्र रेखा के प्रचार : कुछ मनोवैज्ञानिकों ने सीखने की क्रिया पर अनेक अध्ययन किए जिनके आधार पर निकाला कि सीखने की सभी वक्र रेखायें समान नहीं होती है। होंने भी बताया कि वक्र रेखाओं में जो असमानताएँ पायी जाती हैं वे दो बातों पर निर्भर हैं : --
(क) जो कौशल सीखा जा रहा है, उसका स्वरूप तथा (ख) परिस्थिति जिसमें कौशल रखा जा रहा है। इस आधार पर ऊपर वर्णित वक्र के स्वरूप के आधार पर मे विभिन्न वक्र रेखाओं को तीन प्रकारों में बाँटा जा सकता है:
1. सकरात्यक तीव्रगति की वक्र रेखा (Positive accelerated curve) : इस प्रकार की वक्र रेखा में प्रारम्भ में सोखने की क्रिया तीव्रगति से होती है। इसके बाद सीखने की गति में मन्दी पड़ने लगती है।
2. नकरात्मक तीव्रगति की वक्र रेखा (Negative accelerated curve) : इस प्रकार की वन रेखा में अभ्यास काल के प्रारम्भ में तो सीखने की गति मन्द होती है, किन्तु बाद में क्रमशः तीव्र होती जाती है।
3. 'S' शक्ल की वक्र रेखा 'S' shaped curve) : इस तरह की व रेखा में प्रारम्भ काल में सीखने की गति मन्द होती है, किन्तु इसके बाद सीखने की गति तीव्र हो जाती है और कुछ समय तक यह तीव्रता बनी रहती है। इसके बाद क्रमशः गति मन्द होने लगती है।
प्रश्न: अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन स्मरणा की व्याख्या करें। (Explain short-term and Long-term memory.)
उत्तर: स्मरण किसे कहते हैं, यह जानने के लिए पूर्व में दिये गये प्रश्न का उत्तर देख!
स्मरण के प्रकार :-
मनोवैज्ञानिकों ने स्मृति चिह्नों को संचित करने को अवधि के आधार पर, स्मरण के ती प्रकारों का उल्लेख किया है!
(1) संवेदी स्मृति (Sensory memory )
(2) लघुकालीन स्मृति (Short-term memory )
(3) दीर्घकालीन स्मृति (Long-term memory )
1. संवेदी स्मृति : वैसी स्मृति जिसका संचयन व्यक्ति एक सेकेण्ड या उससे कम अवधि के लिए रख पाता है, उसे संवेदी स्मृति कहते हैं। संवेदी स्मृति के कारण ही उत्तेजना के हट जाने के बाद भी व्यक्ति के मन में कुछ समय के लिए उत्तेजना का चिह्न बना रहता है। यही कारण है कि संवेदी स्मृति को संवेदी संचयन (Sensory storage) या संवेदी रजिस्टर (Sensory register) भी कहा जाता है। संवेदी स्मृति में सूचनाएँ अपने
मौलिक रूप में ही संचित रहती हैं उनमें कोई परिवर्तन नहीं होता है। यानि कि संवेदी स्मृति में संचित सूचनाएँ उत्तेजना का यथार्थ प्रतिनिधित्व करती हैं।
संवेदी स्मृति दो प्रकार की होती हैं :-
(i) प्रतिसी संबंधी स्मृति (Iconic memory )
(ii) प्रतिध्वनी स्मृति (Echoic memory )
(i) प्रतिमा संबंधी स्मृति (Iconic memory):- मनौवैज्ञानिक प्रतिमा संबंधी स्मृति को एक दृष्टि संवेदी स्मृति मानते हैं जिसने उत्तेजना के हटा लिए जाने के बाद भी उसका दृष्टि छवि (visual impression) व्यक्ति के मन में कुछ समय के लिए बना रहता है। इस संदर्भ में पहला प्रयोग स्परलिंग (sperling) ने किया था। जिसमें उन्होंने अपने प्रयोज्यों को कार्ड में लिखे गये 4 तरह के अक्षरों को 3 लाइन में सजाकर .05. सेकेण्ड के लिए दिखाया था और बाद में प्रयोज्यों को उन सभी अक्षरों को स्मरण करके। बतलाना होता था। ऐसा पाया गया कि प्रयोज्य केवल 4-5 अक्षरों को ही स्मरण कर पाते थे। किन्तु स्परलिंग ने यह देखा कि प्रयोज्यों को सभी अक्षर याद हो जाते हैं लेकिन जब प्रयोज्य उनका प्रत्याहान करने की कोशिश करता है तो उसे केवल 4-5 अक्षर ही याद रह जाते है और इसी क्रम में बाकी के अक्षरों की स्मृति समाप्त हो जाती है।
इस संदर्भ में अन्य मनोवैज्ञानिकों ने भी अपने अध्ययनों के आधार पर स्परलिंग का समर्थन किया है।
(ii) प्रतिध्वनि स्मृति (Echoic memory) : यह एक संवेदी श्रवण स्मृति हैं जिसमें श्रवण उत्तेजना के समाप्त हो जाने के बाद भी व्यक्ति को कुछ समय के लिए उसकी श्रवण छवि (auditory impression) का अनुभव होता है। इस संदर्भ में मासरो, डार्विन टर्बे, कोठंडर आदि मनोवैज्ञानिकों ने प्रयोगात्मक अध्ययन किया है प्रतिध्वनिक स्मृति के अस्तित्व को प्रमाणित किया है।
2. लघुकालीन स्मृति :लघुकालीन या अल्पकालीन स्मृति वैसी स्मृति को कहते हैं जो बहुत कम समय का होता है तथा जिसकी क्षमता बहुत सीमित होती है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार लघुकालीन स्मृति में व्यक्ति सूचनाओं को कम-से-कम एक सेकेण्ड तथ अधिक से अधिक 20 30 सेकेण्ड तक संचित रख पाता है। लघुकालीन स्मृति मे प्राथमिक स्मृति (primary memory) सक्रिय स्मृति (action memory) तात्कालिक स्मृति (immediate: memory) चलन स्मृति (working memory) आदि नामों से भी जाना जाता है। इसकी अपनी कुछ विशेषताएँ हैं जिसके
आधार पर इसका स्वरूप अधिक स्पष्ट होता है जो निम्नलिखित हैं
(i) लघुकालीन स्मृति कमजोर स्वरूप की होती हैं। यही कारण है कि व्यक्ति के मन में ऐसी स्मृति बहुत कम समय के लिए रहती है।
(ii) लघुकालीन स्मृति में स्मृति विस्तार 5 से 9 एकांशों तक होता है। इस तथ्य को सबसे पहले मिलर ने स्पष्ट किया था कि तात्कालिक स्मृति 7 ° 2 चंक (chunk) द्वारा सीमित होती है। चंकिंग का तात्पर्य एक ऐसी प्रक्रिया से है जिसमें छोटी-छोटी सूचनाओं को बड़ी इकाइयों में समूहन करके उसे याद करते हैं। इसे चंक प्रत्याहान कहते हैं।
(iii) लघुकालीन स्मृति में सूचनाएँ कूटसंकेतीकरण करके संचित रहती है।
(iv) लघुकालीन स्मृति में विघटन की सम्भावना अधिक रहती है।
(v) लघुकालीन स्मृति में सूचनाओं का आना-जाना इतनी जल्दी होता है कि रिहर्सल का समय ही नहीं मिलता है।
(vi) लघुकालीन स्मृति में विस्मरण हास, हस्तक्षेप तथा विस्थापन के कारण होता है!
3. दीर्घकालीन स्मृति : ऐसी स्मृति जिसका संचयन व्यक्ति काफी लम्बे समय तक कर पाता है उसे दीर्घकालीन स्मृति कहा जाता है। दीर्घकालीन स्मृति में व्यक्ति सूचनाओं को कम से कम 20 30 सेकेण्ड से लेकर जीवन भर तक संचित रखता है। दीर्घकालीन स्मृति में सूचनाएँ लघुकालीन स्मृति से होकर पहुंचती है इसलिए इसे गौण स्मृति भी कहते हैं। दुलविंग ने दीर्घकालीन स्मृति को दो भागों में बाँटा है प्रासांगिक स्मृति तथा अर्थगत स्मृति प्रासांगिक स्मृति ने व्यक्ति को व्यक्तिगत सूचनाएँ संचित रहती है। तथा अर्थगत स्मृति में शब्दों, संकेतों तथ्यों के अर्थ से संबंधित सूचनाएँ संचित रहती है।
दीर्घकार तीन स्मृति की कुछ मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :-
(i) दीर्घकालीन स्मृति में सूचनाएँ सापेक्ष रूप से स्थायी होती है।
(ii) दीर्घकालीन स्मृति में सूचनाएँ संगठित एवं व्यवस्थित रूप में संचित रहती है। तथा कूटबद्ध (coded) होती है।
(iii) चूँकि दीर्घकालीन स्मृति में सूचनाएँ कूटबद्ध तथा संगठित रहती है इसलिए इसमें स्मृति विस्तार अधिक होती थी।
(iv) दीर्घकालीन स्मृति में सूचनाओं के विघटन की संभावना कम रहती है।
(v) दीर्घकालीन स्मृति में रिहर्सल का अधिक मौका मिलता है यही कारण है कि यह अधिक स्थायी स्वरूप का होता है।
प्रश्न : दीर्घकालीन स्मृति एवं लघुकालीन स्मृति में अन्तर स्पष्ट करें।
(Distinguish between Long-term memory short-term memory.)
उत्तर : दीर्घकालीन स्मृति एवं लघुकालीन स्मृति में निम्नलिखित अन्तर हैं:-
(i) सत्ताकाल (Duration) :लघुकालीन स्मृति की अपेक्षा दीर्घकालीन स्मृति का अवधि अधिक लम्बी होती है। मनोवैज्ञानिकों ने पाया है कि लघुकालीन स्मृति की अवधि 20 30 सेकेण्ड की होती है जबकि दीर्घकालीन स्मृति की अवधि अपेक्षाकृत - बहुत लम्बी होती है। कुछ सूचनाएँ तो व्यक्ति अवधि जीवनपर्यन्त संचित करके रखता है।
(ii) कूट बद्ध (Coding) : लघुकालीन स्मृति में सूचनाएँ कूटबद्ध नहीं रहती है।.. बल्कि इसमें सूचनाएँ असंगठित एवं अव्यवस्थित रूप में रहती हैं। जबकि दीर्घकालीन स्मृति में सूचनाएँ कूटबद्ध रहती हैं तथा वे संगठित एवं व्यवस्थित भी रहती हैं।
(iii) संचयन शक्ति (Storage capacity) : लघुकालीन स्मृति की संचयन शक्ति सीमित होती है। मिलर के अनुसार लघुकालीन स्मृति की संचयन शक्ति 72 होती है यानि कि व्यक्ति 5 से 9 एकांशों को ही संचित करके रख सकता है। इसके विपरीत दीर्घकालीन स्मृति की संचय शक्ति असीमित होती है।
(iv) विस्मरण (Forgetting) : लघुकालीन स्मृति में विस्मरण का कारण स्मृति चिह्नों का समाप्त होना है। इस तरह के विस्मरण को चिह्न-आधारित विस्मरण कहा जाता है। इसके विपरीत दीर्घकालीन स्मृति में विस्मरण उपयुक्त पुनः प्राप्ति संकेतों की अनुपलब्धता के कारण होती है। इस तरह के विस्मरण को संकेत-आधारित विस्मरण कहते हैं।
(v) रिहर्सल (Rehearsal) : लघुकालीन स्मृति में व्यक्ति को रिहर्सल का मौका नहीं मिलता है। कहने का तात्पर्य है कि इसमें सूचनाओं का आना-जाना इतनी शीघ्रता से होता है कि व्यक्ति को उन्हें दुहराने का मौका ही नहीं मिलता है। जबकि दीर्घकालीन स्मृति में व्यक्ति को रिहर्सल का पूरा मौका मिलता है। यही कारण है कि दीर्घकालीन स्मृति अपेक्षाकृत अधिक स्थायी होता है।
(vi) चंचलता (Fluctuation) : लघुकालीन स्मृति में चंचलता की विशेषता पायी जाती है। यानि कि इसमें एक सूचना संचित होती है तो पहले से संचित सूचना की स्मृति जिह समाप्त हो जाती है। जबकि दीर्घकालीन स्मृति में चंचलता की विशेषता का पूर्ण रूप से अभाव रहता है।
(vii) विघटन (Disruption ) : चूंकि लघुकालीन स्मृति में सूचनाएँ असंगठित एवं अव्यवस्थित रहती है अतः इसमें सूचनाओं के विघटन की अधिक संभावना बनी रहती है। जबकि इसके विपरीत दीर्घकालीन स्मृति में सूचनाएँ संगठित एवं व्यवस्थित रहती है। इसलिए इसमें सूचनाओं के विघटन की संभावना कम रहती है।
(viii) नवीनता प्रभाव एवं प्राथमिकी प्रभाव : (Recency effect and primacy effect) लघुकालीन स्मृति एवं दीर्घकालीन स्मृति में नवीनता प्रभाव एवं प्राथमिकी प्रभाव के आधार पर भी अन्तर है। लघुकालीन स्मृति में नवीनता प्रभाव तथा दौर्घकालीन स्मृति में प्राथमिकी प्रभाव पाया जाता है। यदि किसी व्यक्ति के एकांशों की एक सूची याद करके उसका प्रत्याह्नान करने को कहा जाता है तो वह पहले के अंतिम कुछ एकांशों का प्रत्याह्नान करता है, क्योंकि वह अभी उसके लघुकालीन स्मृति में नवीनता के प्रभाव के कारण मौजूदा है। किन्तु सूची के प्रथम कुछ एकांशों का प्रत्याहान वह कुछ समय बाद करता है। क्योंकि ये एकांश उसके दीर्घकालीन स्मृति में हैं। तथा इसे ही प्राथमिकी प्रभाव कहते हैं।
प्रश्न: भूलना क्या है? हम क्यों भूलते हैं? व्याख्या करें।
(What is forgetting? Why we forget? Explain.) अथवा, विस्मरण के स्वरूप एवं कारणों की व्याख्या करें। (Explain the nature and causes of forgetting.) प्रयोगात्मक उदाहरणों का उल्लेख करते हुए भूलने के मुख्य कारणों को
अथवा
बतायें। (Citing experimental examples mention the main causes of forgetting.)
उत्तर: भूलना (Forgetting) स्मरण क्रिया के ठीक विपरीत है। स्मरण क्रिया में पूर्व में सीखे गये विषयों को उसके वास्तविक प्रत्यक्षीकरण के अभाव में वर्तमान चेतना में लाया जाता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि पूर्व में सीखे गये विषयों में से कुछ ही को वर्तमान चेतना में लाने में हम समर्थ होते हैं तथा कुछ बातों को नहीं। उन विषयों को जिनको वर्तमान चेतना में लाने की असमर्थता होती है, उन्हें भूलना कहा जाता है।
इसके और अधिक स्पष्ट करते हुए यह कहा जा सकता है कि जब पूर्व सीखे गये विषय के स्मृति चिह्न (Memory trace) सुदृढ़ नहीं होते हैं तो उस विषय की धारणा सबल नहीं होती है जिसके फलस्वरूप उस विषय को आवश्यकतानुसार प्रत्याहान हम नहीं कर पाते। यही कारण है कि कुछ मनोवैज्ञानिकों ने विस्मरण के सम्बन्ध में बताया है कि विस्मरण पूर्व सीखे गये विषय को आवश्यकतानुसार प्रत्याह्नान करने की असमर्थता है।
प्रत्याद्वान और पहचान करने की असमर्थता : लेकिन कुछ मनोवैज्ञानिक इस विचार का खंडन करते हैं। उनका कहना है कि कभी-कभी ऐसा भी होता है कि पूर्व सीखे गये विषय को किसी खास समय में प्रत्याहान हम नहीं कर पाते, लेकिन उस की पहचान करने में सफल होते हैं। अतः उनके विचारानुसार विस्मरण प्रत्याहान और पहचान करने की असमर्थता है।
धारणा की असफलता : दूसरी ओर कुछ मनोवैज्ञानिक विस्मरण को धारणा की असफलता बताते हैं। उनका कहना है कि जिस विषय की धारणा ठीक नहीं रहती है, या जिस विषय के स्मृति चिह्न मिट जाते हैं उसी विषय को हम भूल जाते हैं, अर्थात् वर्तमान चेतना' लाने में असमर्थ रहते हैं। लेकिन यह विचार भी उपयुक्त नहीं मालूम पड़ता है, क्योंकि कभी-कभी धारणा रहने पर भी हम किसी विषय को प्रत्याहान या पहचान नहीं कर पाते।
विस्मरण की परिभाया : उपर्युक्त विचारों को मद्देनजर रखते हुए यह कहना अधिक उचित मालूम पड़ता है कि विस्मरण वह मानसिक प्रक्रिया है जिसमें पूर्व में रखे हुए विषय का प्रत्याहान यो पहचान करने की असमर्थता का बोध होता है।
विस्मरण का स्वरूप : निष्क्रिय प्रक्रिया अब दूसरा प्रश्न यह है कि विस्मरण का स्वरूप क्या है (What is the nature of fortetting?) विस्मरण के स्वरूप के सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों में मतैक्य नहीं है। ईविंगहॉस (Ebbinghaus) ने विस्मरण की प्रक्रिया को एक निष्क्रिय प्रक्रिया (Forgetting is a passive mental process) माना है। उनके अनुसार विस्मरण की क्रिया समय व्यवधान के चलते होती है। इस विचार के अनुसार किसी सीखे हुए विषय का प्रत्याहान एक दिन के बाद किया जाय तथा उसी विषय का प्रत्याहान 10 दिनों के बाद किया जाय तो दूसरी अवस्था में विस्मरण की मात्रा अधिक होगी क्योंकि दूसरी अवस्था में समय-व्यवधान पहले की तुलना में अधिक है। ईडिंगहॉस ने उक्त विचार की जाँच प्रयोगात्मक आधार पर की इससे जो निष्कर्ष प्राप्त हुआ उसमें दो बातें महत्वपूर्ण है!
(क) सीखने के पश्चात् प्रत्याहान या पहचान की अवधि जितनी ही लम्बी होगी भूलने की मात्रा उतनी ही अधिक होगी।
(ख) सीखने के बाद विस्मरण किया की गति तीव्र रहती है, लेकिन समय जैसे-जैसे अधिक बीतता जाता है, विस्मरण की गति धीमी होती जाती है। दूसरे शब्दों में विस्मरण की प्रक्रिया शुरू में जितनी तेजी के साथ होती है, दानी तेजी के साथ आगे आने वाले समय में नहीं होती।
सक्रिय प्रक्रिया : विस्मरण के स्वरूप के सम्बन्ध में एक दूसरा विचार म्यूलर (Muller), पिल्मेकर (Pilzecker) तथा स्कैम्स (Skaggs) का है। इन लोगों के अनुसार विस्मरण की क्रिया सक्रिय होती है। (Forgetting is an active mental process)। इन मनोवैज्ञानिकों ने प्रयोगात्मक प्रमाणों के आधार पर बताया है कि किसी विषय को सीखने तथा उसको पुनः स्मरण करने की बीच की अवधि का उपयोग किस रूप में किया जा रहा है, इसी पर विस्मरण क्रिया निर्भर करती है। इसे अधिक स्पष्ट करते हुए ऐसा कहा जा सकता है कि एक अवस्था में विषय को सीखने के बाद शीघ्र दूसरे विषय को सीखना प्रारम्भ कर देना तथा दूसरी अवस्था में किसी विषय को सीखने के बाद विश्राम करने से पहली अवस्था में दूसरी अवस्था की तुलना में भूलने की क्रिया अधिक होगी। यहाँ पर यह स्पष्ट है कि किसी विषय को सीखने के तुरंत बाद दूसरा विषय सीखा जाता है जिसके फलस्वरूप पहले विषय के स्मृति चिह्न को सुदृढ़ होने का मौका नहीं मिलता। अतः हम पहले सीखे गये विषय की अधिकांश बातों को भूल जाते हैं। यहाँ पर म्यूलर तथा पिल्जेकर का विचार है कि पहले विषय के प्रत्याहान में दूसरा विषय बाधक सिद्ध होता है। इसी को उन लोगों ने पृष्ठोन्मुख अवरोध (Retroactive inhibition ) कहा है।
फ्रायड का विचार : विस्मरण के स्वरूप के सम्बन्ध में एक तीसरा विचार भी है जिसके प्रतिपादक फ्रायड (Freud) महोदय हैं। विस्मरण के स्वरूप के सम्बन्ध में वे म्यूलर और पिल्जेकर के विचार से सहमत हैं, लेकिन इसकी व्याख्या के दूसरे ढंग से करते हैं। फ्रायड भी विस्मरण को एक सक्रिय प्रक्रिया मानते हैं। लेकिन इसकी व्याख्या में वे यूर और पिल्जेकर से भिन्न विचार देते हुए कहते हैं कि विस्मरण की प्रक्रिया दमन द्वारा होती है (Forgetting is due to repression)। वे बताते हैं दुःखद विषय को सुखद विषय की तुलना में हम अधिक मात्रा में भूलते हैं। उन्होंने उक्त विचार की परीक्षा प्रयोगात्मक अध्ययनों की सहायता से की फ्रायड के अनुसार हम किसी भी विषय को भूलना चाहते हैं, इसलिए हम उसे भूल जाते हैं। जब कोई दुःखद विषय चेतना में रहता है तो इससे अहम् (Ego) को कष्ट पहुँचता है, जिसके फलस्वरूप अहम् उस विषय को चेतना से हटाकर दमन की प्रक्रिया द्वारा अचेतन में भेज देता है। अतः हम उस दुःखद विषय को भूल जाते हैं।
यथार्थ विचार : उपर्युक्त विचारों को देखते हुए निष्कर्ष स्वरूप यह कहा जा सकता है कि किसी भी एक विचार में आंशिक सत्यता है। दूसरे शब्दों में, किसी एक विचार द्वारा भूलने का स्वरूप पूर्णतः स्पष्ट नहीं होता है। अतः भूलने के स्वरूप की पूर्ण व्याख्या के लिए सभी विचारों को समान महत्त्व देना अधिक उचित होगा।
भूलने का कारण (Causes of forgetting) : चूँकि विस्मरण क्रिय स्मरण-क्रिया के विपरीत एक मानसिक क्रिया है, इसलिए स्मरण को प्रभावित करनेवाले. अंग हो कमजोर हो जाने पर विस्मरण के कारण बन जाते हैं। स्मरण क्रिया को प्रभावित करनेवाले तीन प्रमुख अंग हैं सीखना, धारण करना तथा प्रत्याहान करना। जब ये तीनों अंग सुचारु रूप से क्रियाशील नहीं होते हैं तो विस्गरण की क्रिया होती है।
अब प्रत्येक अंग की विस्तृत व्याख्या नीचे की जा रही है
(क) सीखने को प्रभावित करने वाले अंग (Factors influencing learning) : सीखने के अन्तर्गत अनेक ऐसी बातें हैं जिनका प्रभाव शिक्षण क्रिया पर पड़ता है और अन्त में विस्मरण के ऊपर भी वे प्रभाव डालते हैं। शिक्षण से सम्बन्धित मुख्य बातें निम्नलिखित हैं जो विस्मरण क्रिया के सम्बन्ध में लागू होती है
1.विषय का स्वरूप (Nature of material) : मनोवैज्ञानिकों ने प्रयोगों द्वारा यह बात साबित कर दी है कि सार्थक विषयों (Meaningful subjects) की तुलना में निरर्थक विषय (Nonsense) अधिक शीघ्र भूल जाते हैं। इसके सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि सार्थक विषयों की धारणा अच्छी होती है जिसके फलस्वरूप उनके स्मृति चिह्न (Memory trace) स्थायी होते हैं। इसके विपरीत निरर्थक विषयों की धारणा अच्छी नहीं होती है जिसका परिणाम यह होता है कि ऐसे विषय शीघ्र ही भूल जाते हैं।
2. विषय का भावात्मक मूल्य (Affective value of the material) : मनोवैज्ञानिकों का यह विचार है कि सुखद विषय की तुलना में दुःखद विषय का विस्मरण अधिक होता है। इसके सम्बन्ध में फ्रायड की विचारधारा का उल्लेख करना प्रासंगिक प्रतीत होता है। फ्रायड का कहना है कि दुःखद विषय अगर चेतना में रहते हैं तो इससे अहम् को कष्ट पहुँचता है जिसके परिणामस्वरूप अहम् (Ego) कष्टकर विचारों को चेतना की परिधि से हटाकर अचेतन में भेज देता है। इसी को फ्रायड ने दमन (Repression) की संज्ञा दी है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि दुःखद विचारों को सुखद विचारों की तुलना में हमलोग अधिक भूलते हैं। इस सम्बन्ध में जरशिल्ड (Jershield) का प्रयोग उल्लेखनीय है। उन्होंने अपने प्रयोज्य को गत तीन सप्ताहों के सुखद और दुःखद अनुभवों को लिखने को कहा। उन्होंने इस प्रयोग का उद्देश्य प्रयोज्य के समक्ष स्पष्ट नहीं किया तीन सप्ताहों के बाद फिर उन्हें उन्हीं अनुभवों को लिखने को कहा गया। इन दोनों हालतों में प्रयोज्य ने कितना सुखद अनुभव तथा कितना दुःखद अनुभव पुनः स्मरण किया, उसका विवरण नीचे दिया जा रहा है!
प्रथम पुनः स्मरण! द्वितीय पुनः स्मरणं!
का मध्यमान! का मध्यमान!
सुखद अनुभव- 7.00%! 16.35%!
दुःखद अनुभव -13.70%! 3.14%!
इसके साथ ही अन्य प्रयोग भी इस दिशा में हुए हैं जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि दुःखद विषय सुखद विषय की अपेक्षा शीघ्र भूल जाते हैं।
3. विषय की लम्बाई (Length of material) : व्यक्ति छोटा विषय लम्बे विषय की अपेक्षा अधिक जल्द भूल जाता है। इसके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि अगर दो विषय अन्य बातों में समान रहें और एक विषय दूसरे विषय से बड़ा तथा दूसरा पहले की तुलना में छोटा हो तो शिक्षार्थी को पहले विषय को सीखने लिए (जिसकी लम्बाई अपेक्षाकृत बड़ी है) अधिक बार अभ्यास करना पड़ता है, जिसके फलस्वरूप उसकी स्मृति अपेक्षाकृत स्थायी होती है। इसके विपरीत जो विषय छोटा होता है उसको
सीखने के लिए अत्यधिक अभ्यास की आवश्यकता नहीं होती है जिससे उसकी धारणा अच्छी नहीं हो पाती और हम उस विषय को शीघ्र भूल जाते हैं।
4. सीखने की मात्रा (Quantity of learning) : अगर दो समान लम्बाई के विषयों में से एक को अधिक बार पढ़ा जाय तथा दूसरे को कम बार तो दूसरे विषय का विस्मरण अधिक होगा। दूसरे शब्दों में सीखने की मात्रा जितनी ही अधिक होगी उस विषय... का स्मरण भी उतना ही अधिक होगा। इसके विपरीत सीखने की मात्रा जितनी ही कम होगी उसका विस्मरण भी उतना ही अधिक होगा ईविंगहॉस ने सीखने की मात्रा और विस्मरण के बीच सम्बन्ध को जानने के लिए एक प्रयोग किया जिसमें विभिन्न निरर्थक पदों की 7 सूचियों को क्रमश: 8, 16, 24, 32, 42, 53, और 64 बार सीखा। यहाँ पर यह बात स्मरणीय है कि निरर्थक पदों की संख्या सब सूचियों में समान थी, लेकिन किसी को कम तथा किसी को अधिक मात्रा में सीखा गया। बाद में जब धारणा की जाँच की गयी तो यह पाया गया कि जिस सूची को जितना अधिक सीखा गया था, उसको धारणा उतनी ही अच्छी थी।
5. सीखने की विधि (Method of learning) :सीखने की विभिन्न विधियाँ हैं जैसे विराम तथा अविराम विधि पूर्ण तथा आंशिक रूप से सीखना, निष्क्रिय तथा सक्रिय विधि द्वारा सीखना, रट कर तथा समझ कर सीखना। यद्यपि सीखने के क्षेत्र में ऊपर लिखित सभी विधियों का प्रयोग किया जाता है फिर भी सब विधियों का महत्त्व बराबर नहीं है। प्रयोगात्मक अध्ययनों से यह बात प्रमाणित है कि विराम विधि से सीखना अविराम विधि की तुलना में लाभदायक है, क्योंकि इस विधि में पाठक थोड़ा विश्राम करके दूसरे पाठ-अंश को सीखता है जिसका परिणाम यह होता है कि सौखे गये विषय को धारणा अच्छी होती है। दूसरी ओर अधिराम विधि में पाठक की शिक्षण अवधि में विश्राम करने का मौका नहीं मिलता है। फलतः सीखे गये विषय को धारणा अच्छी नहीं होती है। इसी प्रकार पूर्ण तथा आंशिक विधियों में आंशिक विधि द्वारा सीखना श्रेयस्कर होता है। इस विधि में पाठ्य विषय को विभिन्न अंशों में बाँट दिया जाता है तथा एक-एक कर उन्हें सीखा जाता है। अतः अगर पाठ्य-विषय बहुत लम्बा है तो आंशिक विधि से सीखना उत्तम माना जाता है, क्योंकि लम्बे पाठ्य विषय को धीरे-धीरे टुकड़ों में बाँट देने से तथा एक-एक कर के सीखने से पाठक थकावट का अनुभव नहीं करता है। इसके साथ ही पाठ के एक अंश को सीखने से दूसरे अंश को सीखने में प्रेरणा तथा संतोष मिलता है। उसी प्रकार सक्रिय विधि से सीखना निष्क्रय विधि से अच्छा माना जाता है जब व्यक्ति निष्क्रय रूप से सीखता है तो उसमें किसी प्रकार का उद्देश्य नहीं होता है जिसके फलस्वरूप सीखे गये विषय की धारणा अच्छी नहीं हो पाती है तथा व्यक्ति सीखे गये विषय को तुरत भूल जाता है। लेकिन जय व्यक्ति सक्रिय होकर सोखता है तो इसमें व्यक्ति का उद्देश्य काम करता है, जिसके फलस्वरूप सीखे गये विषय को धारणा अच्छी होती है। अन्त में, किसी विषय को समझ कर तथा केवल स्टकर दोनों तरह से सीखा जा सकता है। जिस विषय को समझकर सीखा जाता है, उसकी धारणा अच्छी होती है तथा यह विषय अधिक दिनों तक रहता है। इसके विपरीत जिस विषय को केवल रटकर सीखा जाता है, वह विषय शीघ्र ही भूल जाता है। अतः ऊपर के विवरण से यह स्पष्ट है कि जिस्मरण पर सीखने की विधियों का भी प्रभाव पड़ता है। दूसरे शब्दों में अगर सीखने के लिए उत्तम विधि का प्रयोग नहीं किया जाय तो विस्मरण की मात्रा अधिक होती है।
(ख) धारण को प्रभावित करने वाले तत्व (Factors influencing Retention) : सीखने और प्रत्याहान के बीच की अवधि को धारण अवधि या धारण काल कहा जाता है। धारण अवधि का प्रभाव भी विस्मरण की प्रक्रिया पर पड़ता है। घरणा अवधि को प्रभावित करने वाले निम्नलिखित तत्त्व हैं
1. मस्तिष्क आघात तथा शारीरिक आघात (Prain injury and physical injury) : मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि जिस विषय को सीखा जाता है, : उसके स्मृति चिह्न हमारे मस्तिष्क में बन जाते हैं। ऐसी हालत में अगर किसी विषय को सीखने के तुरन्त बाद मस्तिष्क में किसी प्रकार का आघात या चोट पहुंचती है तो सीखे हुए विषय का विस्मरण हो जाता है। उसी प्रकार सीखने के पश्चात् किसी प्रकार का शारीरिक रोग या शारीरिक क्षति हो जाती है तब भी व्यक्ति सीखे हुए विषय को भूल जा सकता है।
2. मानसिक धक्का (Mental shock) : व्यक्ति को जब किसी कारण से मानसिक धक्का लगता है तो वह पूर्व सीखे हुए विषय को स्मरण नहीं कर सकता है। इसे ही मनोवैज्ञानिक भाषा में Shock Amnesia" कहा जाता है।
3. मानसिक पर्यवेक्षण का अभाव (Lack of mental review) : जब सीखे हुए विषय को व्यक्ति मन ही मन दुहराता रहता है तो इसे मानसिक पर्यवेक्षण कहा जाता है। सीखने के पश्चात् मानसिक पर्यवेक्षण करना स्मृति चिह्नों को सुदृढ़ बनाने में सहायक होता है। अतः सीखने के बाद सीखे हुए विषय का मानसिक पर्यवेक्षण नहीं किया जाय तो विस्मरण की क्रिया प्रबल होती है।
4. पृष्ठोन्मुख अवरोध (Retroactive inhibition) : जब किसी विषय का सीखना पूर्व सीखे गये विषय के प्रत्याहान में बाधा डालता है तो इसे पृष्ठोन्मुख अवरोध कहा जाता है, जैसे कोई व्यक्ति दो घंटों के लिए इतिहास का अध्ययन करता है। इसके बाद वह साहित्य का अध्ययन दो घंटों के लिए करता है। ऐसी हालत में साहित्य के शिक्षण से जो धारणा बनेगी, वह इसके पूर्व इतिहास की जो बातें सीखी गयी है, उनके प्रत्याह्वान में रुकावट प्रस्तुत करेगी जिसके फलस्वरूप वह व्यक्ति इतिहास की अधिकांश बातें भूल जायगा अतः किसी विषय को सीखने के पश्चात् दूसरे विषय को सीखना और इस बीच आराम या विश्राम न करना पूर्व सीखे हुए विषय को भूलने में मदद करता है। ऊपर लिखित कथन की पुष्टि म्यूलर और पिल्जेकर के प्रयोगात्मक अध्ययन से भी हो जाती है। यह प्रयोग दो अवस्थाओं में किया गया। पहली अवस्था में प्रयोज्य को 30 मिनट के शिक्षण के पश्चात् 30 मिनट का विश्राम दिया गया। इसके बाद सीखे गये विषय का प्रत्याहान कराया गया। दूसरी अवस्था में 30 मिनट के शिक्षण के पश्चात् प्रयोज्य को विश्राम न देकर किसी दूसरे कार्य में लगाया गया। उसके बाद सीखे हुए विषय का प्रत्याद्वान करने के लिए कहा गया। दोनों अवस्थाओं में प्रत्याहान की मात्रा में अन्तर पाया गया पहली अवस्था में प्रयोज्य द्वारा जो प्रत्याहान किया गया, उसकी मात्रा 56% थी तथा दूसरी अवस्था में प्रत्याहान की मात्रा सिर्फ 26% थी। इस प्रकार पहली और दूसरी अवस्थाओं में प्रत्याहांन की मात्रा में 30% का अन्तर पाया गया। इन दो अवस्थाओं में प्रत्याह्नान की मात्रा में जो अन्तर दृष्टिगोचर हो रहा है उसके सम्बन्ध में म्यूलर और पिल्जेकर का यही विचार है कि यहाँ पर पृष्ठोन्मुख अवरोध का प्रभाव है। पहली अवस्था में प्रयोज्य को धारणा की अवधि में विश्राम करने का मौका मिलता है, लेकिन दूसरी अवधि में धारण अवधि का उपयोग वह दूसरे विषय को शिक्षण में करता है। अतः पृष्ठोन्मुख अवरोध विस्मरण का एक प्रधान कारण है।
(ग) धारण परीक्षण को प्रभावित करनेवाले तत्त्व (Factors influencing the tests of Retention) : धारण परीक्षण को प्रभावित करने वाले तत्त्व निम्नलिखित हैं। --
1. गलत मानस स्थिति का होना (Wrong mental set) :
विस्मरण की. प्रक्रिया पर व्यक्ति की मानसिक स्थिति का भी प्रभाव पड़ता है। कभी-कभी ऐसा देखा जाता है कि किसी विषय का प्रत्याहान करते समय पहले से ही व्यक्ति एक मानसिक स्थिति का निर्माण कर लेता है। अतः अगर वह प्रत्याहान करते समय गलत धारणा बना ले, तो वह पूर्व सीखे हुए विषय का सही प्रत्याहान करने में सफल नहीं होगा। इसे एक उदाहरण द्वारा अच्छी तरह समझा जा सकता है। मानलिया जाय कि कोई व्यक्ति अपने उस मित्र का नाम प्रत्याह्नान करना चाहता है जिससे उसकी भेंट दो वर्ष पहले दिल्ली में हुई थी। अब वह पहले ही यह धारणा बना लेता है कि उसके मित्र का नाम "र" अक्षर से शुरू होता है। अतः वह "र" अक्षर के विभिन्न नामों को अपनी चेतना में लाता है (जैसे रमेश, राजेश, राम, राकेश इत्यादि) लेकिन वास्तविकता यह है कि उसके उस मित्र का नाम "सोहन" है जो "स" अक्षर से शुरू होता है। अतः यहाँ पर सोहन (जो उसके मित्र का नाम है तथा जिसका प्रत्याहान वह करना चाहता है) का प्रत्याह्नान करने में वह व्यक्ति सफल नहीं होता क्योंकि उसके अन्दर यह पहले से ही गलत धारणा बन गयी है कि उसके मित्र का नाम "र" अक्षर से शुरू होता है। इस प्रकार गलत मानस स्थिति या गलत धारणा भी विस्मरण का एक प्रमुख कारण है।
(क) सीखने को प्रभावित करने वाले अंग (Factors influencing learning) : सीखने के अन्तर्गत अनेक ऐसी बातें हैं जिनका प्रभाव शिक्षण क्रिया पर पड़ता है और अन्त में विस्मरण के ऊपर भी वे प्रभाव डालते हैं। शिक्षण से सम्बन्धित मुख्य बातें निम्नलिखित हैं जो विस्मरण क्रिया के सम्बन्ध में लागू होती है
1.विषय का स्वरूप (Nature of material) : मनोवैज्ञानिकों ने प्रयोगों द्वारा यह बात साबित कर दी है कि सार्थक विषयों (Meaningful subjects) की तुलना में निरर्थक विषय (Nonsense) अधिक शीघ्र भूल जाते हैं। इसके सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि सार्थक विषयों की धारणा अच्छी होती है जिसके फलस्वरूप उनके स्मृति चिह्न (Memory trace) स्थायी होते हैं। इसके विपरीत निरर्थक विषयों की धारणा अच्छी नहीं होती है जिसका परिणाम यह होता है कि ऐसे विषय शीघ्र ही भूल जाते हैं।
2. विषय का भावात्मक मूल्य (Affective value of the material) : मनोवैज्ञानिकों का यह विचार है कि सुखद विषय की तुलना में दुःखद विषय का विस्मरण अधिक होता है। इसके सम्बन्ध में फ्रायड की विचारधारा का उल्लेख करना प्रासंगिक प्रतीत होता है। फ्रायड का कहना है कि दुःखद विषय अगर चेतना में रहते हैं तो इससे अहम् को कष्ट पहुँचता है जिसके परिणामस्वरूप अहम् (Ego) कष्टकर विचारों को चेतना की परिधि से हटाकर अचेतन में भेज देता है। इसी को फ्रायड ने दमन (Repression) की संज्ञा दी है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि दुःखद विचारों को सुखद विचारों की तुलना में हमलोग अधिक भूलते हैं। इस सम्बन्ध में जरशिल्ड (Jershield) का प्रयोग उल्लेखनीय है। उन्होंने अपने प्रयोज्य को गत तीन सप्ताहों के सुखद और दुःखद अनुभवों को लिखने को कहा। उन्होंने इस प्रयोग का उद्देश्य प्रयोज्य के समक्ष स्पष्ट नहीं किया तीन सप्ताहों के बाद फिर उन्हें उन्हीं अनुभवों को लिखने को कहा गया। इन दोनों हालतों में प्रयोज्य ने कितना सुखद अनुभव तथा कितना दुःखद अनुभव पुनः स्मरण किया, उसका विवरण नीचे दिया जा रहा है!
प्रथम पुनः स्मरण! द्वितीय पुनः स्मरणं!
का मध्यमान! का मध्यमान!
सुखद अनुभव- 7.00%! 16.35%!
दुःखद अनुभव -13.70%! 3.14%!
इसके साथ ही अन्य प्रयोग भी इस दिशा में हुए हैं जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि दुःखद विषय सुखद विषय की अपेक्षा शीघ्र भूल जाते हैं।
3. विषय की लम्बाई (Length of material) : व्यक्ति छोटा विषय लम्बे विषय की अपेक्षा अधिक जल्द भूल जाता है। इसके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि अगर दो विषय अन्य बातों में समान रहें और एक विषय दूसरे विषय से बड़ा तथा दूसरा पहले की तुलना में छोटा हो तो शिक्षार्थी को पहले विषय को सीखने लिए (जिसकी लम्बाई अपेक्षाकृत बड़ी है) अधिक बार अभ्यास करना पड़ता है, जिसके फलस्वरूप उसकी स्मृति अपेक्षाकृत स्थायी होती है। इसके विपरीत जो विषय छोटा होता है उसको
सीखने के लिए अत्यधिक अभ्यास की आवश्यकता नहीं होती है जिससे उसकी धारणा अच्छी नहीं हो पाती और हम उस विषय को शीघ्र भूल जाते हैं।
4. सीखने की मात्रा (Quantity of learning) : अगर दो समान लम्बाई के विषयों में से एक को अधिक बार पढ़ा जाय तथा दूसरे को कम बार तो दूसरे विषय का विस्मरण अधिक होगा। दूसरे शब्दों में सीखने की मात्रा जितनी ही अधिक होगी उस विषय... का स्मरण भी उतना ही अधिक होगा। इसके विपरीत सीखने की मात्रा जितनी ही कम होगी उसका विस्मरण भी उतना ही अधिक होगा ईविंगहॉस ने सीखने की मात्रा और विस्मरण के बीच सम्बन्ध को जानने के लिए एक प्रयोग किया जिसमें विभिन्न निरर्थक पदों की 7 सूचियों को क्रमश: 8, 16, 24, 32, 42, 53, और 64 बार सीखा। यहाँ पर यह बात स्मरणीय है कि निरर्थक पदों की संख्या सब सूचियों में समान थी, लेकिन किसी को कम तथा किसी को अधिक मात्रा में सीखा गया। बाद में जब धारणा की जाँच की गयी तो यह पाया गया कि जिस सूची को जितना अधिक सीखा गया था, उसको धारणा उतनी ही अच्छी थी।
5. सीखने की विधि (Method of learning) :सीखने की विभिन्न विधियाँ हैं जैसे विराम तथा अविराम विधि पूर्ण तथा आंशिक रूप से सीखना, निष्क्रिय तथा सक्रिय विधि द्वारा सीखना, रट कर तथा समझ कर सीखना। यद्यपि सीखने के क्षेत्र में ऊपर लिखित सभी विधियों का प्रयोग किया जाता है फिर भी सब विधियों का महत्त्व बराबर नहीं है। प्रयोगात्मक अध्ययनों से यह बात प्रमाणित है कि विराम विधि से सीखना अविराम विधि की तुलना में लाभदायक है, क्योंकि इस विधि में पाठक थोड़ा विश्राम करके दूसरे पाठ-अंश को सीखता है जिसका परिणाम यह होता है कि सौखे गये विषय को धारणा अच्छी होती है। दूसरी ओर अधिराम विधि में पाठक की शिक्षण अवधि में विश्राम करने का मौका नहीं मिलता है। फलतः सीखे गये विषय को धारणा अच्छी नहीं होती है। इसी प्रकार पूर्ण तथा आंशिक विधियों में आंशिक विधि द्वारा सीखना श्रेयस्कर होता है। इस विधि में पाठ्य विषय को विभिन्न अंशों में बाँट दिया जाता है तथा एक-एक कर उन्हें सीखा जाता है। अतः अगर पाठ्य-विषय बहुत लम्बा है तो आंशिक विधि से सीखना उत्तम माना जाता है, क्योंकि लम्बे पाठ्य विषय को धीरे-धीरे टुकड़ों में बाँट देने से तथा एक-एक कर के सीखने से पाठक थकावट का अनुभव नहीं करता है। इसके साथ ही पाठ के एक अंश को सीखने से दूसरे अंश को सीखने में प्रेरणा तथा संतोष मिलता है। उसी प्रकार सक्रिय विधि से सीखना निष्क्रय विधि से अच्छा माना जाता है जब व्यक्ति निष्क्रय रूप से सीखता है तो उसमें किसी प्रकार का उद्देश्य नहीं होता है जिसके फलस्वरूप सीखे गये विषय की धारणा अच्छी नहीं हो पाती है तथा व्यक्ति सीखे गये विषय को तुरत भूल जाता है। लेकिन जय व्यक्ति सक्रिय होकर सोखता है तो इसमें व्यक्ति का उद्देश्य काम करता है, जिसके फलस्वरूप सीखे गये विषय को धारणा अच्छी होती है। अन्त में, किसी विषय को समझ कर तथा केवल स्टकर दोनों तरह से सीखा जा सकता है। जिस विषय को समझकर सीखा जाता है, उसकी धारणा अच्छी होती है तथा यह विषय अधिक दिनों तक रहता है। इसके विपरीत जिस विषय को केवल रटकर सीखा जाता है, वह विषय शीघ्र ही भूल जाता है। अतः ऊपर के विवरण से यह स्पष्ट है कि जिस्मरण पर सीखने की विधियों का भी प्रभाव पड़ता है। दूसरे शब्दों में अगर सीखने के लिए उत्तम विधि का प्रयोग नहीं किया जाय तो विस्मरण की मात्रा अधिक होती है।
(ख) धारण को प्रभावित करने वाले तत्व (Factors influencing Retention) : सीखने और प्रत्याहान के बीच की अवधि को धारण अवधि या धारण काल कहा जाता है। धारण अवधि का प्रभाव भी विस्मरण की प्रक्रिया पर पड़ता है। घरणा अवधि को प्रभावित करने वाले निम्नलिखित तत्त्व हैं
1. मस्तिष्क आघात तथा शारीरिक आघात (Prain injury and physical injury) : मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि जिस विषय को सीखा जाता है, : उसके स्मृति चिह्न हमारे मस्तिष्क में बन जाते हैं। ऐसी हालत में अगर किसी विषय को सीखने के तुरन्त बाद मस्तिष्क में किसी प्रकार का आघात या चोट पहुंचती है तो सीखे हुए विषय का विस्मरण हो जाता है। उसी प्रकार सीखने के पश्चात् किसी प्रकार का शारीरिक रोग या शारीरिक क्षति हो जाती है तब भी व्यक्ति सीखे हुए विषय को भूल जा सकता है।
2. मानसिक धक्का (Mental shock) : व्यक्ति को जब किसी कारण से मानसिक धक्का लगता है तो वह पूर्व सीखे हुए विषय को स्मरण नहीं कर सकता है। इसे ही मनोवैज्ञानिक भाषा में Shock Amnesia" कहा जाता है।
3. मानसिक पर्यवेक्षण का अभाव (Lack of mental review) : जब सीखे हुए विषय को व्यक्ति मन ही मन दुहराता रहता है तो इसे मानसिक पर्यवेक्षण कहा जाता है। सीखने के पश्चात् मानसिक पर्यवेक्षण करना स्मृति चिह्नों को सुदृढ़ बनाने में सहायक होता है। अतः सीखने के बाद सीखे हुए विषय का मानसिक पर्यवेक्षण नहीं किया जाय तो विस्मरण की क्रिया प्रबल होती है।
4. पृष्ठोन्मुख अवरोध (Retroactive inhibition) : जब किसी विषय का सीखना पूर्व सीखे गये विषय के प्रत्याहान में बाधा डालता है तो इसे पृष्ठोन्मुख अवरोध कहा जाता है, जैसे कोई व्यक्ति दो घंटों के लिए इतिहास का अध्ययन करता है। इसके बाद वह साहित्य का अध्ययन दो घंटों के लिए करता है। ऐसी हालत में साहित्य के शिक्षण से जो धारणा बनेगी, वह इसके पूर्व इतिहास की जो बातें सीखी गयी है, उनके प्रत्याह्वान में रुकावट प्रस्तुत करेगी जिसके फलस्वरूप वह व्यक्ति इतिहास की अधिकांश बातें भूल जायगा अतः किसी विषय को सीखने के पश्चात् दूसरे विषय को सीखना और इस बीच आराम या विश्राम न करना पूर्व सीखे हुए विषय को भूलने में मदद करता है। ऊपर लिखित कथन की पुष्टि म्यूलर और पिल्जेकर के प्रयोगात्मक अध्ययन से भी हो जाती है। यह प्रयोग दो अवस्थाओं में किया गया। पहली अवस्था में प्रयोज्य को 30 मिनट के शिक्षण के पश्चात् 30 मिनट का विश्राम दिया गया। इसके बाद सीखे गये विषय का प्रत्याहान कराया गया। दूसरी अवस्था में 30 मिनट के शिक्षण के पश्चात् प्रयोज्य को विश्राम न देकर किसी दूसरे कार्य में लगाया गया। उसके बाद सीखे हुए विषय का प्रत्याद्वान करने के लिए कहा गया। दोनों अवस्थाओं में प्रत्याहान की मात्रा में अन्तर पाया गया पहली अवस्था में प्रयोज्य द्वारा जो प्रत्याहान किया गया, उसकी मात्रा 56% थी तथा दूसरी अवस्था में प्रत्याहान की मात्रा सिर्फ 26% थी। इस प्रकार पहली और दूसरी अवस्थाओं में प्रत्याहांन की मात्रा में 30% का अन्तर पाया गया। इन दो अवस्थाओं में प्रत्याह्नान की मात्रा में जो अन्तर दृष्टिगोचर हो रहा है उसके सम्बन्ध में म्यूलर और पिल्जेकर का यही विचार है कि यहाँ पर पृष्ठोन्मुख अवरोध का प्रभाव है। पहली अवस्था में प्रयोज्य को धारणा की अवधि में विश्राम करने का मौका मिलता है, लेकिन दूसरी अवधि में धारण अवधि का उपयोग वह दूसरे विषय को शिक्षण में करता है। अतः पृष्ठोन्मुख अवरोध विस्मरण का एक प्रधान कारण है।
(ग) धारण परीक्षण को प्रभावित करनेवाले तत्त्व (Factors influencing the tests of Retention) : धारण परीक्षण को प्रभावित करने वाले तत्त्व निम्नलिखित हैं। --
1. गलत मानस स्थिति का होना (Wrong mental set) :
विस्मरण की. प्रक्रिया पर व्यक्ति की मानसिक स्थिति का भी प्रभाव पड़ता है। कभी-कभी ऐसा देखा जाता है कि किसी विषय का प्रत्याहान करते समय पहले से ही व्यक्ति एक मानसिक स्थिति का निर्माण कर लेता है। अतः अगर वह प्रत्याहान करते समय गलत धारणा बना ले, तो वह पूर्व सीखे हुए विषय का सही प्रत्याहान करने में सफल नहीं होगा। इसे एक उदाहरण द्वारा अच्छी तरह समझा जा सकता है। मानलिया जाय कि कोई व्यक्ति अपने उस मित्र का नाम प्रत्याह्नान करना चाहता है जिससे उसकी भेंट दो वर्ष पहले दिल्ली में हुई थी। अब वह पहले ही यह धारणा बना लेता है कि उसके मित्र का नाम "र" अक्षर से शुरू होता है। अतः वह "र" अक्षर के विभिन्न नामों को अपनी चेतना में लाता है (जैसे रमेश, राजेश, राम, राकेश इत्यादि) लेकिन वास्तविकता यह है कि उसके उस मित्र का नाम "सोहन" है जो "स" अक्षर से शुरू होता है। अतः यहाँ पर सोहन (जो उसके मित्र का नाम है तथा जिसका प्रत्याहान वह करना चाहता है) का प्रत्याह्नान करने में वह व्यक्ति सफल नहीं होता क्योंकि उसके अन्दर यह पहले से ही गलत धारणा बन गयी है कि उसके मित्र का नाम "र" अक्षर से शुरू होता है। इस प्रकार गलत मानस स्थिति या गलत धारणा भी विस्मरण का एक प्रमुख कारण है।
2. प्रत्याह्नान की अवधि में समान विषयों की स्मृति का प्रभाव (Impact of similar memorisation of similar materials during recall) : प्रत्याहान की अवधि में जिस विषय का प्रत्याह्वान किया जा रहा है अगर उस स्वरूप के दूसरे विषय का स्मरण आ रहा है तो इसका भी प्रभाव भूलने की प्रक्रिया पर पड़ता है। दूसरे शब्दों में समान स्वरूप के विषय के स्मरण से हम उस विषय को अधिकांश बातों को भूल जाते हैं जिसका हम प्रत्याह्नान करना चाहते हैं। जैसे दो फिल्मों की कहानी में अगर बहुत हद तक समानता है तो ऐसी हालत में वह व्यक्ति (जिसने दोनों) फिल्में देखी है) किसी एक फिल्म की अधिकांश बातों को भूल सकता है, क्योंकि दूसरी फिल्म की अधिकांश बातें उस व्यक्ति की चेतना में आकर पहली फिल्म की बातों के प्रत्याहान में रुकावट उपस्थित करती हैं। अतः विस्मरणों की प्रक्रिया में समान विषयों की स्मृति का भी प्रभाव काफी हद तक पड़ता है।
3. प्रत्याह्नान करने की इच्छा का अभाव (Lack of intention to recall): अगर व्यक्ति में किसी पूर्व सीखे गये विषय का प्रत्याह्नान करने की अनिच्छा है तो ऐसी हालत में यह व्यक्ति उस विषय की अधिकांश बातों का प्रत्याहान नहीं कर पायेगा। यहाँ पर यह बात उल्लेखनीय है कि परीक्षा भवन में परीक्षार्थी किसी पूर्व सीखे हुए विषय की अधिकांश बातों का प्रत्याह्नान करने में सफल होते हैं, क्योंकि उस समय उनके अन्दर प्रत्याह्नान करने की पूर्ण इच्छा रहती है। अतः यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि व्यक्ति के अन्दर प्रत्याह्वान करने की इच्छा या अभिरुचि का न होना भी विस्मरण का एक प्रधान कारण है।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि उपर्युक्त अंगों का प्रभाव विस्मरण की प्रक्रिया पर पड़ता है। यहाँ पर यह निष्कर्ष निकालना सचमुच में विवादास्पद मालूम पड़ता है कि ऊपर लिखित कारणों में से कौन सा कारण विस्मरण की प्रक्रिया के लिये अधिक रूप से उत्तरदायी है। लेकिन इतना कहना उचित प्रतीत होता है कि भूलने की प्रक्रिया सिर्फ एक कारण से नहीं होती बल्कि इसमें अनेक तत्वों का हाथ रहता है, जिनका वर्णन ऊपर किया जा चुका है।
प्रश्न: "भूलना एक निष्क्रिय मानसिक प्रक्रिया नहीं है, अपितु यह एक सक्रिय प्रक्रिया है।" विवेचना करें.
("Forgetting is not a passive mental process, rather it is an active mental process." Discuss.)
. अथवा,
विस्मरण किसे कहते हैं? विस्मरण का स्वरूप बतायें।
. अथवा
"विस्मरण एक सक्रिय एवं उद्देश्यपूर्ण बौद्धिक प्रक्रिया है।" इस कथन की सोदाहरण व्याख्या करें।
(Forgetting is an active and purposive mental process." Explain and exemplify.)
. अथवा,
विस्मरण के स्वरूप एवं कारणों की व्याख्या करें। (Explain the nature and causes of forgetting.).u
. अथवा
किसी सीखे हुए विषय को हम क्यों भूल जाते हैं।
(Why do we forget the learnt matters.)
उत्तर: भूलना एक बहुत प्रचलित शब्द है जिसका व्यवहार हम उठते-बैठते करते हैं। दूसरे शब्दों में स्मरण क्रिया में सीखना और भूलना ये दोनों शब्द बार-बार आते हैं। हम जानते हैं कि स्मरण के अन्तर्गत सीखना, धारण करना, प्रत्याहान और पहचानना सम्मिलित हैं। जब हम किसी चीज को सीखते हैं तो उससे सम्बन्धित स्मृति चिह्न हमारे मस्तिष्क पर बन जाते हैं। यदि हम इसका प्रत्याह्नान करते समय इसे याद नहीं कर पाते हैं। तो इसका अर्थ होता है स्मृति चिह्न का कमजोर हो जाना या मिट जाना। इस दृष्टिकोण से हम भूलने की परिभाषा देते हुए कह सकते हैं कि “भूलना एक ऐसी मानसिक क्रिया है जिसमें शिक्षण के संस्कार कमजोर हो जाते हैं या मिट जाते हैं। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि 'मूलना' एक निषेधात्मक धारण (Negative retention) है और इसे दूसरे ढंग से यह भी कहा जा सकता है कि प्रत्याहान की असफलता ही 'मूलना' है। (Forgetting is the failures of Recall)। लेकिन ऐसा सोचना गलत क्योंकि प्रत्याह्नान की क्रिया धारण की क्रिया पर निर्भर करती है। इसीलिए यदि संस्कारों का धारण मजबूत नहीं होता है तो भूलने की गति में तेजी आ जाती है। प्रो. मन्न के अनुसार यह साबित होता है कि यह सिर्फ प्रत्याह्नान ही नहीं बल्कि धारण की भी असफलता है।
भूलने का स्वरूप :भूलने के स्वरूप के सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों में काफी मतभेद है। इस सम्बन्ध में सबसे पहला अध्ययन एविंगहाउस द्वारा किया गया। उन्होंने लगभग 1200 से अधिक निरर्थक पदों की सूची बनायी और उसे स्वयं याद कर डाला। उन्होंने उसका प्रत्याहान याद करने के बीस मिनट, 5 दिन, दो दिनों, छं: दिनों तथा सत्ताइस दिनों के बाद किया। उन्होंने अनुभव किया कि ज्यों-ज्यों समय बीतता गया विस्मरण की मात्रा बढ़ती गयी। जब ऊपर बताये गये विभिन्न समयों पर धारण की जाँच की तो उसके प्राप्त अंक (scores) से उन्होंने एक रेखाचित्र तैयार किया जिसे एक्विंगहाउस स्मरण रेखाचित्र (Ebbinghause curve of forgetting) के नाम से जाना जाता है।
3. प्रत्याह्नान करने की इच्छा का अभाव (Lack of intention to recall): अगर व्यक्ति में किसी पूर्व सीखे गये विषय का प्रत्याह्नान करने की अनिच्छा है तो ऐसी हालत में यह व्यक्ति उस विषय की अधिकांश बातों का प्रत्याहान नहीं कर पायेगा। यहाँ पर यह बात उल्लेखनीय है कि परीक्षा भवन में परीक्षार्थी किसी पूर्व सीखे हुए विषय की अधिकांश बातों का प्रत्याह्नान करने में सफल होते हैं, क्योंकि उस समय उनके अन्दर प्रत्याह्नान करने की पूर्ण इच्छा रहती है। अतः यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि व्यक्ति के अन्दर प्रत्याह्वान करने की इच्छा या अभिरुचि का न होना भी विस्मरण का एक प्रधान कारण है।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि उपर्युक्त अंगों का प्रभाव विस्मरण की प्रक्रिया पर पड़ता है। यहाँ पर यह निष्कर्ष निकालना सचमुच में विवादास्पद मालूम पड़ता है कि ऊपर लिखित कारणों में से कौन सा कारण विस्मरण की प्रक्रिया के लिये अधिक रूप से उत्तरदायी है। लेकिन इतना कहना उचित प्रतीत होता है कि भूलने की प्रक्रिया सिर्फ एक कारण से नहीं होती बल्कि इसमें अनेक तत्वों का हाथ रहता है, जिनका वर्णन ऊपर किया जा चुका है।
प्रश्न: "भूलना एक निष्क्रिय मानसिक प्रक्रिया नहीं है, अपितु यह एक सक्रिय प्रक्रिया है।" विवेचना करें.
("Forgetting is not a passive mental process, rather it is an active mental process." Discuss.)
. अथवा,
विस्मरण किसे कहते हैं? विस्मरण का स्वरूप बतायें।
. अथवा
"विस्मरण एक सक्रिय एवं उद्देश्यपूर्ण बौद्धिक प्रक्रिया है।" इस कथन की सोदाहरण व्याख्या करें।
(Forgetting is an active and purposive mental process." Explain and exemplify.)
. अथवा,
विस्मरण के स्वरूप एवं कारणों की व्याख्या करें। (Explain the nature and causes of forgetting.).u
. अथवा
किसी सीखे हुए विषय को हम क्यों भूल जाते हैं।
(Why do we forget the learnt matters.)
उत्तर: भूलना एक बहुत प्रचलित शब्द है जिसका व्यवहार हम उठते-बैठते करते हैं। दूसरे शब्दों में स्मरण क्रिया में सीखना और भूलना ये दोनों शब्द बार-बार आते हैं। हम जानते हैं कि स्मरण के अन्तर्गत सीखना, धारण करना, प्रत्याहान और पहचानना सम्मिलित हैं। जब हम किसी चीज को सीखते हैं तो उससे सम्बन्धित स्मृति चिह्न हमारे मस्तिष्क पर बन जाते हैं। यदि हम इसका प्रत्याह्नान करते समय इसे याद नहीं कर पाते हैं। तो इसका अर्थ होता है स्मृति चिह्न का कमजोर हो जाना या मिट जाना। इस दृष्टिकोण से हम भूलने की परिभाषा देते हुए कह सकते हैं कि “भूलना एक ऐसी मानसिक क्रिया है जिसमें शिक्षण के संस्कार कमजोर हो जाते हैं या मिट जाते हैं। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि 'मूलना' एक निषेधात्मक धारण (Negative retention) है और इसे दूसरे ढंग से यह भी कहा जा सकता है कि प्रत्याहान की असफलता ही 'मूलना' है। (Forgetting is the failures of Recall)। लेकिन ऐसा सोचना गलत क्योंकि प्रत्याह्नान की क्रिया धारण की क्रिया पर निर्भर करती है। इसीलिए यदि संस्कारों का धारण मजबूत नहीं होता है तो भूलने की गति में तेजी आ जाती है। प्रो. मन्न के अनुसार यह साबित होता है कि यह सिर्फ प्रत्याह्नान ही नहीं बल्कि धारण की भी असफलता है।
भूलने का स्वरूप :भूलने के स्वरूप के सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों में काफी मतभेद है। इस सम्बन्ध में सबसे पहला अध्ययन एविंगहाउस द्वारा किया गया। उन्होंने लगभग 1200 से अधिक निरर्थक पदों की सूची बनायी और उसे स्वयं याद कर डाला। उन्होंने उसका प्रत्याहान याद करने के बीस मिनट, 5 दिन, दो दिनों, छं: दिनों तथा सत्ताइस दिनों के बाद किया। उन्होंने अनुभव किया कि ज्यों-ज्यों समय बीतता गया विस्मरण की मात्रा बढ़ती गयी। जब ऊपर बताये गये विभिन्न समयों पर धारण की जाँच की तो उसके प्राप्त अंक (scores) से उन्होंने एक रेखाचित्र तैयार किया जिसे एक्विंगहाउस स्मरण रेखाचित्र (Ebbinghause curve of forgetting) के नाम से जाना जाता है।
(i) सीखने के बाद जितना ही अधिक समय बीतता जायगा भूलने की मात्रा उतनी ही बढ़ती जायगी।
(ii) सीखने के तुरंत बाद भूलने की गति बहुत तेज होती है, लेकिन कुछ समय के बाद वह लगभग स्थिर हो जाती है।
क्या भूलना निष्क्रिय मानसिक किया है:एन्डिंगहाउस की इस विस्मरण रेखा की आलोचना स्कैग्स, म्यूलर, पिल्जेकर तथा फ्रायड ने की है। इन लोगों ने एब्बिगहाउस' के विचार का खण्डन करते हुए बताया कि भूलना एक निष्क्रिय (Passive) नहीं बल्कि एक सक्रिय (Active) मानसिक क्रिया है। इस कथन के अनुसार भूलने के पीछे कोई तत्त्व या क्रिया काम करती है। किसी विषय को हम केवल काल व्यवधान (Time interval) के कारण ही नहीं भूलते हैं, बल्कि हमारे काल व्यवधान को दो बातें प्रभावित करती हैं, जिनके कारण भूलने की क्रिया होती है।
इनमें एक बाघक क्रिया (Interpolated activity) और दूसरी दमन क्रिया (Repressive activity) है। पहले विचार के समर्थक म्यूलर और पिल्जेकर का कहना है कि एक विषय को सीखने के बाद उससे बने हुए मस्तिष्क पर जो संस्कार होते हैं उनको दूसरे सीखे गये विषय से संबंधित संस्कार रोकने या मिटाने का प्रयास करते हैं। यदि एक विद्यार्थी मनोविज्ञान याद करता है और बिना विश्राम किये उसे याद करते समय बीच ही में वह इतिहास याद करना शुरू करता है तो इतिहास से सम्बन्धित संस्कार मनोविज्ञान के स्मरण में बाधक क्रिया का काम करेंगे। यही कारण है कि साँखने के तुरंत बाद जब हम सो जाते हैं तो वह विषय हमें अधिक याद रहता है। इस तरह मूलना निष्क्रिय (Passive) नहीं बल्कि सक्रिय मानसिक किया है। फ्रायड ने भी भूलने को एक सक्रिय (Active) मानसिक क्रिया मानता है। फ्रायड ने कहा है कि "हम किसी चीज को इसलिए भूलते हैं कि हम इसे भूलना चाहते हैं।" (We forget a thing because we want to forget it) फ्रायड ने दैनिक जीवन की छोटी-छोटी भूलों को भी अर्थपूर्ण और सक्रिय भूल माना है। फ्रायड ने बताया है कि ऐसे अनुभवों को जिसके कारण हमारे अहम् (Ego) को कष्ट पहुंचता है, हम जल्द भूल जाते हैं। इनके अनुसार दुःखद अनुभवों को हम अधिक समय तक चेतना में धारण करना नहीं चाहते, क्योंकि वे कष्टकर या अपमानजनक होते हैं। इस कारण इनका दमन चेतना द्वारा हो जाता है और वे अचेतन में चले जाते हैं जिन्हें हम स्मरण नहीं कर सकते।
इस तरह इन सब विचारों से यह स्पष्ट होता है कि भूलना एक सक्रिय (Active) मानसिक क्रिया है, निष्क्रिय (Passive) मानसिक क्रिया नहीं है।
प्रश्न : संवेग क्या है? संवेग की अवस्था में होनेवाले वाह्य एवं आन्तरिक शारीरिक परिवर्तनों का संक्षेप में वर्णन करें।
(What is Emotion? Describe briefly the external and internal bodily changes in the state of emotion.)
. अथवा
संवेग की परिभाषा देते हुए इसके शारीरिक कारकों की व्याख्या कीजिए। (Define Emotion and explain its bodily factors.)
उत्तर : संवेग शब्द का व्यवहार हम अपने जीवन में बहुत अधिक नहीं करते लेकिन प्रेम, भय, क्रोध, घृणा आदि हमारे दैनिक जीवन के शब्द हैं। इन्हीं के अनुभवों को संवेग कहते हैं। मनोवैज्ञानिकों ने संवेग को एक उपद्रव की अवस्था (disturbed state) कहा है। इसका अर्थ यह है कि संवेग की अवस्था में व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक क्रियाओं में अन्तर आ जाता है। वह अपनी सामान्य स्थिति खो देता है। इस अवस्था में वह बिना सोचे-विचारे कार्य कर बैठता है जिसके लिये उसे बाद में पश्चाताप करना पड़ता है।
शाब्दिक अर्थ : अंगरेजी का 'Emotion' शब्द Latin भाषा के 'Emovere' शब्द से बना हुआ है जिसका अर्थ उत्तेजित होना (to stir up), घबड़ा जाना (to agitate), असंगठित हो जाना (to disorganise) आदि होता है। इस व्याख्या से इतना अर्थ अवश्य निकलता है कि संवेग सामान्य अवस्था से भिन्न उपद्रव की अवस्था है। जिसकी चेतना व्यक्ति को रहती है तथा वह परिस्थिति के अनुकूल व्यवहार करता है।
संवेग की परिभाषा : संवेग को विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने परिभाषित करने की कोशिश की है लेकिन, पी. टी. यंग ने उन परिभाषाओं पर विचार कर संवेग की एक उपयुक्त परिभाषा दी है, जो आज भी मान्य है। उनके मुताबिक, "संवेग सम्पूर्ण रूप से व्यक्ति में तीव्र उपद्रव की अवस्था है जिसकी उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक कारणों से होती है तथा जिसमें व्यवहार, चेतन, अनुभव और अन्तरावयव के कार्य सन्निहित रहते हैं।" (Emotion is an acute disturbance of the individual as a whole psychological in origin, involving behaviour conscious. experience and viseral functioning.) इस परिभाषा में मुख्य तीन बातें कही गयी हैं -----
1. संवेग एक तीव्र उपद्रव की अवस्था है,
2. संवेग में चेतन अनुभूति और शारीरिक परिवर्तन दोनों होते हैं, और
3. संवेग की उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक कारणों से होती है।
1. तीव्र उपद्रव अवस्था : संवेग की अवस्था सामान्य अवस्था से भिन्न तीव्र उपद्रव की अवस्था होती है। इस अवस्था में व्यक्ति ऐसे-ऐसे काम करता है जिसकी कल्पना भी सामान्य अवस्था में नहीं की जा सकती है। अधिकांश संवेगों के समय हमारे अन्दर एकाएक परिवर्तन होते हैं। जैसे, साँप को देखकर व्यक्ति एकाएक चौक पड़ता है और चिल्ला उठता है। यही कारण है कि संवेगात्मक अनुभव को तीव्र स्वरूप का माना जाता है।
संवेग का अनुभव शरीर के किसी खास भाग से नहीं होता है बल्कि पूरे जीव से होता है। जैसे, जब कोई व्यक्ति प्रेम का अनुभव करता है तो उसका सम्पूर्ण शरीर प्रेम का अनुभव करता है, कोई अंग विशेष नहीं।
2. चेतन अनुभूति और शारीरिक परिवर्तन : संवेग में चेतन अनुभूति और शारीरिक परिवर्तन दोनों होते हैं। व्यक्ति उत्तेजित अवस्था का चेतन अनुभव करता है तथा साथ ही व्यक्ति में आंतरिक एवं वाह्य शारीरिक परिवर्तन होते हैं। जैसे सौंप देखने पर हमें भय की अनुभूति होती है और साथ ही चिल्ला पड़ते हैं।
3. मनोवैज्ञानिक कारण :संवेग का कारण भी मनोवैज्ञानिक होता है। अर्थात् संवेग के लिए किसी उत्तेजक (stimulus) का होना जरूरी है। जैसे क्रोध, भय आदि के लिए बाह्य उत्तेजक का होना आवश्यक होता है। यदि ऐसा न हो तो प्रेम, क्रोध आदि का अनुभव नहीं करेंगे।
(1).संवेग में शारीरिक परिवर्त्तन (Bodily changes in emotion) : की अवस्था में व्यक्ति के व्यवहारों में काफी परिवर्तन होते हैं। इन्हीं परिवर्तनों के आधार पर ही संवेगों को समझा जा सकता है। ऐसे परिवर्तन दो प्रकार के होते हैं- 1. वा शारीरिक परिवर्तन (External bodily changes) तथा 2. आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन (Internal bodily changes) वाह्य शारीरिक परिवर्तन ऐसे परिवर्तन हैं जो खुली आँखों से देखे जा सकते हैं, तथा आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन ऐसे परिवर्तन हैं!
जिनकी जानकारी के लिये विशेष यंत्रों की आवश्यकता होती है। यहाँ दोनों परिवर्तनों पर अलग-अलग विचार किया जायगा।
1. संवेग के बाह्य शारीरिक परिवर्त्तन (External bodily changes in emotion) : पाह्य शारीरिक परिवर्तन के अन्तर्गत तीन मुख्य परिवर्तन आते हैं
(i) मौखिक अभिव्यक्ति में परिवर्तन(Changes in facial
expression)
(ii) शारीरिक स्थिति में परिवर्त्तन (Changes in bodily posture ) (iii) स्वर में परिवर्तन (Changes in vocal sound i
(i) मौखिक अभिव्यक्ति में परिवर्तन (Changes in facial expression) : संवेग की अवस्था में मौखिक अभिव्यञ्जन देखने को मिलते हैं। चेहरे : के उन भागों में जैसे- ललाट, आँख, नाक, गाल, मुख आदि में, संवेग में विशेष परिवर्तन होते हैं। इन परिवर्तनों को देख कर हम कह सकते हैं कि व्यक्ति किस प्रकार के संवेग का अनुभव कर रहा है। जैसे क्रोध में आँखें अधिक खुली तथा लाल मालूम पड़ती हैं, होठ फड़कने लगते हैं, भौहें टेढ़ी हो जाती है और व्यक्ति दाँत पीसने लगता है। उसी प्रकार य में चेहरा निस्तेज और पीला पड़ जाता है और खुशी में चेहरा खिल उठता है। ऐसे चेहरे की मांसपेशियों के फैलने तथा सिकुड़ने से होता है। लेकिन मौखिक अभिव्यक्ति के अध्ययन से संवेग का पता लगाना ऊड़वर्थ के अनुसार भुलावा है (Reading facial expression is mostly a myth)!
(ii) शारीरिक स्थिति में परिवर्त्तन (Changes in bodily posture) : संवेग केवल चेहरे पर ही परिवर्तन नहीं लाता, बल्कि उससे पूरे शरीर में परिवर्तन हो जाता है। परिणामस्वरूप, संवेगात्मक अवस्था में व्यक्ति का पूरा हाथ पाँव फड़कने लगता है, तथा व्यक्ति मार-पीट आदि आक्रामक व्यवहार करने लग जाता है। भय की अवस्था में वह सरपट भागता है और कभी-कभी किंकर्तव्यविमूढ़ होकर वह खड़ा हो जाता है जैसे उसे काठ मार गया हो। इसी शारीरिक परिवर्तन के आधार पर हम मूक अभिनय का अर्थ समझ पाते हैं।
संवेग की अवस्था में हमारे शरीर में जो कुछ परिवर्तन होते हैं, उसी के आधार पर हर-हमेशा संवेग को समझा नहीं जा सकता। क्योंकि, संवेगात्मक अभिव्यक्तियों पर सभ्यता (civilization) संस्कृति (culture) तथा वातावरण (environment) का भी प्रभाव पड़ता है।
(iii) स्वर में परिवर्तन (Changes in vocal sound) : हँसी, रूलाई 'हिचकी, तथा स्वर का उतार-चढ़ाव कुछ ऐसे संकेत हैं जिनके आधार पर हमें संवेगों का ज्ञान हो जाया करता है। हँसी की आवाज से प्रसन्नता, रूलाई से दुःख, तेज और ऊँची आवाज से क्रोध और काँपती आवाज से भय और मधुर आवाज से हम प्रेम का अर्थ लगाते हैं। रेडियो नाटकों का अर्थ भी आवाज के आधार पर ही लगाया जाता है।
2. संवेग में आन्तरिक शारीरिक परिवर्त्तन (Internal bodily changes): संवेग के उपर्युक्त वाह्य परिवर्तनों के अलावा कुछ आन्तरिक परिवर्तन भी होते हैं जो निम्नलिखित हैं --
(i) स्वाँस की गति में परिवर्त्तन (Changes in the rate of respiration ) : सामान्यावस्था में साँस लेने और छोड़ने में जो समय लगता है. उसका अनुपात 1: 4 का रहता है, लेकिन संवेगशील अवस्था में साँस तेजी से चलने लगती है जिसके समय का अनुपात घटकर 1 2 या 1 1 हो जाता है।
(ii) रक्त चाप में परिवर्त्तन (Changes in blood pressure) : संवेग
की अवस्था में रक्त चाप में परिवर्तन होते हैं। अक्सर संवेग की अवस्था में रक्त चाप में वृद्धि हो जाती है, लेकिन कभी-कभी रक्तचाप में कमी भी देखी जाती है। 80 प्रतिशत झूठ बोलनेवालों का पता उनके रक्तचाप को मापने से लग जाता है। इसे हम Sphygmometer नामक यन्त्र से मापते हैं।
(iii) रक्त में रासायनिक परिवर्त्तन (Chemical changes in blood) :
संवेग की अवस्था में रक्त में रासायनिक परिवर्तन भी होने लगते हैं। रासायनिक परिवर्तन के अन्तर्गत खून में एड्रिनिन की मात्रा में वृद्धि, चीनी की मात्रा में वृद्धि तथा लालकणों की मात्रा में वृद्धि आदि प्रमुख हैं।
(iv) पाचन क्रिया में परिवर्तन (Changes in gastro-intestinal activity) : कैनन (Cannon) ने अपने प्रयोगों के आधार पर बतलाया कि संवग की : अवस्था में पाचन क्रिया धीमी पड़ जाती है। कभी-कभी तो बन्द भी हो जाती है। उन्होंने एक बिल्ली को अच्छी तरह खाना खिला दिया और फिर उसे एक कुत्ते के नजदीक ले जाया गया। कुत्ते को देखकर बिल्ली तीव्र भय और क्रोध का अनुभव करने लगी। एक्सरे (X-ray) के सहारे पाया गया कि बिल्ली की पाचन क्रिया करीब पन्द्रह मिनट तक बन्द थी।
(v) यहिःस्राव में परिवर्त्तन (Changes in outer secretion) : संवेग
की अवस्था में पसीना, लार, आँसू, मल-मूत्र आदि का साथ बढ़ जाता है। अध्ययनों से पता चला है कि संवेगशील व्यक्ति प्रायः कब्जियत या अतिसार (diarrhoea) का शिकार हो जाता है।
(vi) त्वक् विद्युत् अनुक्रिया में परिवर्तन (Changes in galvanic skin responses) : हमारी त्वचा पर विद्युत् तत्त्व पाये जाते हैं। इसे Galvanometer नामक यन्त्र से मापा जाता है। रोंगटे खड़ा होना इस बात का प्रतीक है। कि त्वचा पर वैद्युतिक अनुक्रिया बढ़ गयी है।
(vii) हृदय और नाड़ी की गति में परिवर्तन (Changes in heart beat and pulse rate) : हृदय की धड़कन तथा नाड़ी की चाल एक साथ एक गति से चलती है। इनमें से एक में परिवर्तन होने से दूसरे में भी परिवर्तन हो जाता है। संवेग के समय धड़कन की संख्या तथा उसकी तीव्रता दोनों ही में वृद्धि हो जाती है। इसे Cardiotachometer नामक यन्त्र से मापा जा सकता है।
(viii) मस्तिष्क तरंगों में परिवर्तन (Changes in brain waves) : मस्तिष्क में कुछ वैद्युतिक परिवर्तन होते हैं जिन्हें मस्तिष्क तरंग कहते हैं। सोचने, समस्या समाधान करने में इन तरंगों का महत्त्वपूर्ण हाथ रहता है। सामान्य अवस्था में मस्तिष्क तरंगों में एक निश्चित लय बनती है लेकिन संवेग की अवस्था में यह लय समाप्त हो जाती है। इसे Electroencephalograph नामक यन्त्र से मापा जाता है।
प्रश्न : संवेग के कैनन बार्ड सिद्धान्त का वर्णन करें। : (Describe Cannon-Bard theory of Emotion.)
उत्तर : कैनन बार्ड का सिद्धान्त कैनन बार्ड नामक मनोवैज्ञानिकों ने संवेग का जो सिद्धान्त प्रस्तुत किया उसे प्रायः हाइपोथैलेमिक सिद्धान्त भी कहा जाता है। यह सिद्धान्त जेम्स लाने सिद्धान्त के विपरीत है। कैनन बार्ड के अनुसार संवेगात्मक व्यवहार और संवेगात्मक अनुभूति दोनों की उत्पत्ति एक साथ स्वतंत्र रूप से हाइपोथैलेमस द्वारा होती है। यह क्रिया इस प्रकार होती है सर्वप्रथम संवेगात्मक परिस्थिति का प्रत्यक्षीकरण होता है जिसके कारण हाइपोथैलेमस उत्तेजित होता है। उसके बाद हाइपोथैलेमस में उत्तेजनायें या स्नायु प्रवाह एक ही समय में एक ओर से वृहन्मस्तिन्कीय न्लक में और दूसरी ओर से प्रसाकों में जाती है तब जो उत्तेजनायें वृहन्मस्तिष्कीय ब्लक में पहुँचती है वे संवेग का अनुभव करती हैं तथा जो उत्तेजनायें प्रभाकों में पहुँचती हैं वे शारीरिक तथा व्यावहारिक क्रियाओं को उत्पन्न कराती है इस प्रकार एक ही समय में व्यक्ति में संवेगात्मक अनुभूति तथा संवेगात्मक व्यवहार होता है।
(ii) सीखने के तुरंत बाद भूलने की गति बहुत तेज होती है, लेकिन कुछ समय के बाद वह लगभग स्थिर हो जाती है।
क्या भूलना निष्क्रिय मानसिक किया है:एन्डिंगहाउस की इस विस्मरण रेखा की आलोचना स्कैग्स, म्यूलर, पिल्जेकर तथा फ्रायड ने की है। इन लोगों ने एब्बिगहाउस' के विचार का खण्डन करते हुए बताया कि भूलना एक निष्क्रिय (Passive) नहीं बल्कि एक सक्रिय (Active) मानसिक क्रिया है। इस कथन के अनुसार भूलने के पीछे कोई तत्त्व या क्रिया काम करती है। किसी विषय को हम केवल काल व्यवधान (Time interval) के कारण ही नहीं भूलते हैं, बल्कि हमारे काल व्यवधान को दो बातें प्रभावित करती हैं, जिनके कारण भूलने की क्रिया होती है।
इनमें एक बाघक क्रिया (Interpolated activity) और दूसरी दमन क्रिया (Repressive activity) है। पहले विचार के समर्थक म्यूलर और पिल्जेकर का कहना है कि एक विषय को सीखने के बाद उससे बने हुए मस्तिष्क पर जो संस्कार होते हैं उनको दूसरे सीखे गये विषय से संबंधित संस्कार रोकने या मिटाने का प्रयास करते हैं। यदि एक विद्यार्थी मनोविज्ञान याद करता है और बिना विश्राम किये उसे याद करते समय बीच ही में वह इतिहास याद करना शुरू करता है तो इतिहास से सम्बन्धित संस्कार मनोविज्ञान के स्मरण में बाधक क्रिया का काम करेंगे। यही कारण है कि साँखने के तुरंत बाद जब हम सो जाते हैं तो वह विषय हमें अधिक याद रहता है। इस तरह मूलना निष्क्रिय (Passive) नहीं बल्कि सक्रिय मानसिक किया है। फ्रायड ने भी भूलने को एक सक्रिय (Active) मानसिक क्रिया मानता है। फ्रायड ने कहा है कि "हम किसी चीज को इसलिए भूलते हैं कि हम इसे भूलना चाहते हैं।" (We forget a thing because we want to forget it) फ्रायड ने दैनिक जीवन की छोटी-छोटी भूलों को भी अर्थपूर्ण और सक्रिय भूल माना है। फ्रायड ने बताया है कि ऐसे अनुभवों को जिसके कारण हमारे अहम् (Ego) को कष्ट पहुंचता है, हम जल्द भूल जाते हैं। इनके अनुसार दुःखद अनुभवों को हम अधिक समय तक चेतना में धारण करना नहीं चाहते, क्योंकि वे कष्टकर या अपमानजनक होते हैं। इस कारण इनका दमन चेतना द्वारा हो जाता है और वे अचेतन में चले जाते हैं जिन्हें हम स्मरण नहीं कर सकते।
इस तरह इन सब विचारों से यह स्पष्ट होता है कि भूलना एक सक्रिय (Active) मानसिक क्रिया है, निष्क्रिय (Passive) मानसिक क्रिया नहीं है।
प्रश्न : संवेग क्या है? संवेग की अवस्था में होनेवाले वाह्य एवं आन्तरिक शारीरिक परिवर्तनों का संक्षेप में वर्णन करें।
(What is Emotion? Describe briefly the external and internal bodily changes in the state of emotion.)
. अथवा
संवेग की परिभाषा देते हुए इसके शारीरिक कारकों की व्याख्या कीजिए। (Define Emotion and explain its bodily factors.)
उत्तर : संवेग शब्द का व्यवहार हम अपने जीवन में बहुत अधिक नहीं करते लेकिन प्रेम, भय, क्रोध, घृणा आदि हमारे दैनिक जीवन के शब्द हैं। इन्हीं के अनुभवों को संवेग कहते हैं। मनोवैज्ञानिकों ने संवेग को एक उपद्रव की अवस्था (disturbed state) कहा है। इसका अर्थ यह है कि संवेग की अवस्था में व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक क्रियाओं में अन्तर आ जाता है। वह अपनी सामान्य स्थिति खो देता है। इस अवस्था में वह बिना सोचे-विचारे कार्य कर बैठता है जिसके लिये उसे बाद में पश्चाताप करना पड़ता है।
शाब्दिक अर्थ : अंगरेजी का 'Emotion' शब्द Latin भाषा के 'Emovere' शब्द से बना हुआ है जिसका अर्थ उत्तेजित होना (to stir up), घबड़ा जाना (to agitate), असंगठित हो जाना (to disorganise) आदि होता है। इस व्याख्या से इतना अर्थ अवश्य निकलता है कि संवेग सामान्य अवस्था से भिन्न उपद्रव की अवस्था है। जिसकी चेतना व्यक्ति को रहती है तथा वह परिस्थिति के अनुकूल व्यवहार करता है।
संवेग की परिभाषा : संवेग को विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने परिभाषित करने की कोशिश की है लेकिन, पी. टी. यंग ने उन परिभाषाओं पर विचार कर संवेग की एक उपयुक्त परिभाषा दी है, जो आज भी मान्य है। उनके मुताबिक, "संवेग सम्पूर्ण रूप से व्यक्ति में तीव्र उपद्रव की अवस्था है जिसकी उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक कारणों से होती है तथा जिसमें व्यवहार, चेतन, अनुभव और अन्तरावयव के कार्य सन्निहित रहते हैं।" (Emotion is an acute disturbance of the individual as a whole psychological in origin, involving behaviour conscious. experience and viseral functioning.) इस परिभाषा में मुख्य तीन बातें कही गयी हैं -----
1. संवेग एक तीव्र उपद्रव की अवस्था है,
2. संवेग में चेतन अनुभूति और शारीरिक परिवर्तन दोनों होते हैं, और
3. संवेग की उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक कारणों से होती है।
1. तीव्र उपद्रव अवस्था : संवेग की अवस्था सामान्य अवस्था से भिन्न तीव्र उपद्रव की अवस्था होती है। इस अवस्था में व्यक्ति ऐसे-ऐसे काम करता है जिसकी कल्पना भी सामान्य अवस्था में नहीं की जा सकती है। अधिकांश संवेगों के समय हमारे अन्दर एकाएक परिवर्तन होते हैं। जैसे, साँप को देखकर व्यक्ति एकाएक चौक पड़ता है और चिल्ला उठता है। यही कारण है कि संवेगात्मक अनुभव को तीव्र स्वरूप का माना जाता है।
संवेग का अनुभव शरीर के किसी खास भाग से नहीं होता है बल्कि पूरे जीव से होता है। जैसे, जब कोई व्यक्ति प्रेम का अनुभव करता है तो उसका सम्पूर्ण शरीर प्रेम का अनुभव करता है, कोई अंग विशेष नहीं।
2. चेतन अनुभूति और शारीरिक परिवर्तन : संवेग में चेतन अनुभूति और शारीरिक परिवर्तन दोनों होते हैं। व्यक्ति उत्तेजित अवस्था का चेतन अनुभव करता है तथा साथ ही व्यक्ति में आंतरिक एवं वाह्य शारीरिक परिवर्तन होते हैं। जैसे सौंप देखने पर हमें भय की अनुभूति होती है और साथ ही चिल्ला पड़ते हैं।
3. मनोवैज्ञानिक कारण :संवेग का कारण भी मनोवैज्ञानिक होता है। अर्थात् संवेग के लिए किसी उत्तेजक (stimulus) का होना जरूरी है। जैसे क्रोध, भय आदि के लिए बाह्य उत्तेजक का होना आवश्यक होता है। यदि ऐसा न हो तो प्रेम, क्रोध आदि का अनुभव नहीं करेंगे।
(1).संवेग में शारीरिक परिवर्त्तन (Bodily changes in emotion) : की अवस्था में व्यक्ति के व्यवहारों में काफी परिवर्तन होते हैं। इन्हीं परिवर्तनों के आधार पर ही संवेगों को समझा जा सकता है। ऐसे परिवर्तन दो प्रकार के होते हैं- 1. वा शारीरिक परिवर्तन (External bodily changes) तथा 2. आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन (Internal bodily changes) वाह्य शारीरिक परिवर्तन ऐसे परिवर्तन हैं जो खुली आँखों से देखे जा सकते हैं, तथा आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन ऐसे परिवर्तन हैं!
जिनकी जानकारी के लिये विशेष यंत्रों की आवश्यकता होती है। यहाँ दोनों परिवर्तनों पर अलग-अलग विचार किया जायगा।
1. संवेग के बाह्य शारीरिक परिवर्त्तन (External bodily changes in emotion) : पाह्य शारीरिक परिवर्तन के अन्तर्गत तीन मुख्य परिवर्तन आते हैं
(i) मौखिक अभिव्यक्ति में परिवर्तन(Changes in facial
expression)
(ii) शारीरिक स्थिति में परिवर्त्तन (Changes in bodily posture ) (iii) स्वर में परिवर्तन (Changes in vocal sound i
(i) मौखिक अभिव्यक्ति में परिवर्तन (Changes in facial expression) : संवेग की अवस्था में मौखिक अभिव्यञ्जन देखने को मिलते हैं। चेहरे : के उन भागों में जैसे- ललाट, आँख, नाक, गाल, मुख आदि में, संवेग में विशेष परिवर्तन होते हैं। इन परिवर्तनों को देख कर हम कह सकते हैं कि व्यक्ति किस प्रकार के संवेग का अनुभव कर रहा है। जैसे क्रोध में आँखें अधिक खुली तथा लाल मालूम पड़ती हैं, होठ फड़कने लगते हैं, भौहें टेढ़ी हो जाती है और व्यक्ति दाँत पीसने लगता है। उसी प्रकार य में चेहरा निस्तेज और पीला पड़ जाता है और खुशी में चेहरा खिल उठता है। ऐसे चेहरे की मांसपेशियों के फैलने तथा सिकुड़ने से होता है। लेकिन मौखिक अभिव्यक्ति के अध्ययन से संवेग का पता लगाना ऊड़वर्थ के अनुसार भुलावा है (Reading facial expression is mostly a myth)!
(ii) शारीरिक स्थिति में परिवर्त्तन (Changes in bodily posture) : संवेग केवल चेहरे पर ही परिवर्तन नहीं लाता, बल्कि उससे पूरे शरीर में परिवर्तन हो जाता है। परिणामस्वरूप, संवेगात्मक अवस्था में व्यक्ति का पूरा हाथ पाँव फड़कने लगता है, तथा व्यक्ति मार-पीट आदि आक्रामक व्यवहार करने लग जाता है। भय की अवस्था में वह सरपट भागता है और कभी-कभी किंकर्तव्यविमूढ़ होकर वह खड़ा हो जाता है जैसे उसे काठ मार गया हो। इसी शारीरिक परिवर्तन के आधार पर हम मूक अभिनय का अर्थ समझ पाते हैं।
संवेग की अवस्था में हमारे शरीर में जो कुछ परिवर्तन होते हैं, उसी के आधार पर हर-हमेशा संवेग को समझा नहीं जा सकता। क्योंकि, संवेगात्मक अभिव्यक्तियों पर सभ्यता (civilization) संस्कृति (culture) तथा वातावरण (environment) का भी प्रभाव पड़ता है।
(iii) स्वर में परिवर्तन (Changes in vocal sound) : हँसी, रूलाई 'हिचकी, तथा स्वर का उतार-चढ़ाव कुछ ऐसे संकेत हैं जिनके आधार पर हमें संवेगों का ज्ञान हो जाया करता है। हँसी की आवाज से प्रसन्नता, रूलाई से दुःख, तेज और ऊँची आवाज से क्रोध और काँपती आवाज से भय और मधुर आवाज से हम प्रेम का अर्थ लगाते हैं। रेडियो नाटकों का अर्थ भी आवाज के आधार पर ही लगाया जाता है।
2. संवेग में आन्तरिक शारीरिक परिवर्त्तन (Internal bodily changes): संवेग के उपर्युक्त वाह्य परिवर्तनों के अलावा कुछ आन्तरिक परिवर्तन भी होते हैं जो निम्नलिखित हैं --
(i) स्वाँस की गति में परिवर्त्तन (Changes in the rate of respiration ) : सामान्यावस्था में साँस लेने और छोड़ने में जो समय लगता है. उसका अनुपात 1: 4 का रहता है, लेकिन संवेगशील अवस्था में साँस तेजी से चलने लगती है जिसके समय का अनुपात घटकर 1 2 या 1 1 हो जाता है।
(ii) रक्त चाप में परिवर्त्तन (Changes in blood pressure) : संवेग
की अवस्था में रक्त चाप में परिवर्तन होते हैं। अक्सर संवेग की अवस्था में रक्त चाप में वृद्धि हो जाती है, लेकिन कभी-कभी रक्तचाप में कमी भी देखी जाती है। 80 प्रतिशत झूठ बोलनेवालों का पता उनके रक्तचाप को मापने से लग जाता है। इसे हम Sphygmometer नामक यन्त्र से मापते हैं।
(iii) रक्त में रासायनिक परिवर्त्तन (Chemical changes in blood) :
संवेग की अवस्था में रक्त में रासायनिक परिवर्तन भी होने लगते हैं। रासायनिक परिवर्तन के अन्तर्गत खून में एड्रिनिन की मात्रा में वृद्धि, चीनी की मात्रा में वृद्धि तथा लालकणों की मात्रा में वृद्धि आदि प्रमुख हैं।
(iv) पाचन क्रिया में परिवर्तन (Changes in gastro-intestinal activity) : कैनन (Cannon) ने अपने प्रयोगों के आधार पर बतलाया कि संवग की : अवस्था में पाचन क्रिया धीमी पड़ जाती है। कभी-कभी तो बन्द भी हो जाती है। उन्होंने एक बिल्ली को अच्छी तरह खाना खिला दिया और फिर उसे एक कुत्ते के नजदीक ले जाया गया। कुत्ते को देखकर बिल्ली तीव्र भय और क्रोध का अनुभव करने लगी। एक्सरे (X-ray) के सहारे पाया गया कि बिल्ली की पाचन क्रिया करीब पन्द्रह मिनट तक बन्द थी।
(v) यहिःस्राव में परिवर्त्तन (Changes in outer secretion) : संवेग
की अवस्था में पसीना, लार, आँसू, मल-मूत्र आदि का साथ बढ़ जाता है। अध्ययनों से पता चला है कि संवेगशील व्यक्ति प्रायः कब्जियत या अतिसार (diarrhoea) का शिकार हो जाता है।
(vi) त्वक् विद्युत् अनुक्रिया में परिवर्तन (Changes in galvanic skin responses) : हमारी त्वचा पर विद्युत् तत्त्व पाये जाते हैं। इसे Galvanometer नामक यन्त्र से मापा जाता है। रोंगटे खड़ा होना इस बात का प्रतीक है। कि त्वचा पर वैद्युतिक अनुक्रिया बढ़ गयी है।
(vii) हृदय और नाड़ी की गति में परिवर्तन (Changes in heart beat and pulse rate) : हृदय की धड़कन तथा नाड़ी की चाल एक साथ एक गति से चलती है। इनमें से एक में परिवर्तन होने से दूसरे में भी परिवर्तन हो जाता है। संवेग के समय धड़कन की संख्या तथा उसकी तीव्रता दोनों ही में वृद्धि हो जाती है। इसे Cardiotachometer नामक यन्त्र से मापा जा सकता है।
(viii) मस्तिष्क तरंगों में परिवर्तन (Changes in brain waves) : मस्तिष्क में कुछ वैद्युतिक परिवर्तन होते हैं जिन्हें मस्तिष्क तरंग कहते हैं। सोचने, समस्या समाधान करने में इन तरंगों का महत्त्वपूर्ण हाथ रहता है। सामान्य अवस्था में मस्तिष्क तरंगों में एक निश्चित लय बनती है लेकिन संवेग की अवस्था में यह लय समाप्त हो जाती है। इसे Electroencephalograph नामक यन्त्र से मापा जाता है।
प्रश्न : संवेग के कैनन बार्ड सिद्धान्त का वर्णन करें। : (Describe Cannon-Bard theory of Emotion.)
उत्तर : कैनन बार्ड का सिद्धान्त कैनन बार्ड नामक मनोवैज्ञानिकों ने संवेग का जो सिद्धान्त प्रस्तुत किया उसे प्रायः हाइपोथैलेमिक सिद्धान्त भी कहा जाता है। यह सिद्धान्त जेम्स लाने सिद्धान्त के विपरीत है। कैनन बार्ड के अनुसार संवेगात्मक व्यवहार और संवेगात्मक अनुभूति दोनों की उत्पत्ति एक साथ स्वतंत्र रूप से हाइपोथैलेमस द्वारा होती है। यह क्रिया इस प्रकार होती है सर्वप्रथम संवेगात्मक परिस्थिति का प्रत्यक्षीकरण होता है जिसके कारण हाइपोथैलेमस उत्तेजित होता है। उसके बाद हाइपोथैलेमस में उत्तेजनायें या स्नायु प्रवाह एक ही समय में एक ओर से वृहन्मस्तिन्कीय न्लक में और दूसरी ओर से प्रसाकों में जाती है तब जो उत्तेजनायें वृहन्मस्तिष्कीय ब्लक में पहुँचती है वे संवेग का अनुभव करती हैं तथा जो उत्तेजनायें प्रभाकों में पहुँचती हैं वे शारीरिक तथा व्यावहारिक क्रियाओं को उत्पन्न कराती है इस प्रकार एक ही समय में व्यक्ति में संवेगात्मक अनुभूति तथा संवेगात्मक व्यवहार होता है।
कैनन बार्ड सिद्धान्त की आलोचना
यह सिद्धान्त जेम्स लाने सिद्धान्त के दोषों को दूर करता हुआ भी दोष रहित नहीं है। इसका मुख्य दोष है कि जो संवेगात्मक व्यवहार हाइपोथैलेमस को उत्तेजित करने से होता है वह स्वाभाविक रूप से उत्पन्न संवेगात्मक व्यवहार से क्षणिक होता है तथा उसमें अभियोजन की क्षमता कम होती है। अतः संवेगात्मक व्यवहार के लिये हाइपोथैलेमस के अतिरिक्त अन्य अंगों का भी महत्व है।
प्रश्न : प्रेरणात्मक संघर्ष से आप क्या समझते हैं? प्रेरणात्मक संघर्ष के समाधान की कौन-कौन सी विधियाँ हैं? (What do you mean by the conflict of Motives? What are the different methods of resolving the
conflict of Motives.)
उत्तर : प्रेरणात्मक संघर्ष जब दो या दो से अधिक प्रेरकों की उत्पत्ति एक साथ ही होती है और उन प्रेरकों की शक्ति एक दूसरे के बराबर होती है तो व्यक्ति निर्णय लेने में असमर्थ हो जाता है वह किससे प्रभावित हो। दूसरे शब्दों में, जंब बराबर शक्तियों के प्रेरक एक साथ सन्तुष्टि चाहते हैं, तो उस समय व्यक्ति की निर्णय शक्ति क्षीण पड़ जाती है। वह समझ नहीं पाता है कि किस प्रेरक को सन्तुष्ट करे ऐसी स्थिति में मन में एक संघर्ष उत्पन्न होता है कि किस प्रेरक को प्राथमिकता दी जाय। मन की ऐसी अवस्था को प्रेरणात्मक संघर्ष (Conflict of Motive) कहा जाता है। उदाहरणस्वरूप, यदि किसी विद्यार्थी के विश्वविद्यालय की वार्षिक परीक्षा के समय ही उसकी गाँ की गम्भीर बीमारी का तार आ जाता है, तो ऐसी अवस्था में उसके सामने दो बराबर शक्ति की समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। एक तरफ माँ की गम्भीर बीमारी और दूसरी तरफ विश्वविद्यालय की वार्षिक परीक्षा इन दोनों में से वह किसी की भी उपेक्षा सरल और साधारण ढंग से नहीं कर सकता है। परिणामस्वरूप यह संघर्ष की अवस्था में उलझ जाता है और यह सोचने लग जाता है कि क्या करू? परीक्षा छोहूँ और मर जाऊँ या परीक्षा दूँ और माँ की अवहेलना करू? इसी संघर्ष को अवस्था को प्रेरणात्मक संघर्ष की अवस्था कहा जाता है।
प्रेरणात्मक संघर्ष के समाधान का तरीका : जब व्यक्ति संघर्षमय स्थिति में रहता है, तो उसका मानसिक संतुलन अव्यवस्थित हो जाता है। लेकिन व्यक्ति की मानसिक रचनाएँ कुछ इस प्रकार की होती हैं कि वह अधिक देर तक संघर्ष की स्थिति में नहीं रह सकता हैं।
प्रेरणात्मक संघर्ष के समाधान के दो तरीके हैं :
1. चेतनै समाधान (Cónscious resolution).
2. अचेतन समाधन (Unçonscious resolution)
1.चेतन समाधान : हमारे कुछ प्रेरणा संघर्ष ऐसे होते हैं जिनका समाधान चेतन रूप से मिल जाता है। चेतन समाधान में निम्नलिखित बातें होती हैं --
(1) विमर्श : जब हमारे मन में दो प्रेरकों की उत्पत्ति एक साथ होती है, तो उस समय हम इस बात पर ध्यान देते हैं कि इनमें से कौन से प्रेरक की संतुष्टि अधिक आवश्यक है और किसकी कम जब हम समझ-बूझकर इनसे से किसी एक की उपेक्षा करते हैं, तो उसको विमर्श कहा जाता है। जैसे, परीक्षा के समय यदि कोई बहुत अच्छा फिल्म आ जाता है, तो हम विचार-विमर्श करके फिल्म देखने की इच्छा पर काबू पा जाते हैं और अपने पढ़ने के अनमोल समय पर ध्यान देते हैं।
(ii) तर्क-वितर्क : जब हमें प्रेरणात्मक संघर्ष के समाधान में कठिनाई होती है, तो हम तर्क-वितर्क करके उसका समाधान खोज निकालते हैं।
(iii) दूसरों से सूचनाएँ प्राप्त करना : जब हमारे प्रेरणात्मक संघर्ष का समाधान हमें स्वयं नहीं मिलता है, तो हम दूसरों से इस समस्या से सम्बन्धित बातों पर सूचनाएँ प्राप्त करते हैं और इस तरह से हम अपने संघर्ष के समाधान का रास्ता खोज निकालते हैं।
(iv) संकल्प : जब व्यक्ति को किसी निर्णयविशेष पर पहुँचने के बाद भी, संतोष नहीं होता है तो वह अपने निर्णय पर फिर से विचार करता है।
जो उसका अंतिम निर्णय होता है, उसी को संकल्प कहा जाता है। जैसे, अकबर बहुत ही कम आयु में हिन्दुस्तान के सिंहासन पर बैठ गया। राज्य की बागडोर प्राप्त करते ही वह चारों तरफ से मुसीबतों से घिर गया। इनसे निपटारा पाने के लिए उसने अनेक उपाय सोचे। अन्त में उसने युद्ध करने की ठानी और कहा कि “तख्त (सिंहासन) या तख्ता" अर्थात् लड़ाई में जीतेंगे तो सिंहासन पर बैठेंगे और हारेंगे तो जमीन के भीतर तख्ते से पाट कर सुला दिये जायेंगे। ऐसे निर्णय को संकल्प (Resolution) कहा जाता है।
2. अचेतन समाधान : जब संघर्ष और व्यक्ति को अपने प्रेरणात्मक संघर्ष का समाधान चेतन रूप से नहीं हो पाता है तो उस समय अचेतन मानसिक क्रियाएँ काम करने लगती हैं और व्यक्ति को संघर्ष की स्थिति से बचा देती हैं। मनुष्य के प्रेरणात्मक संघर्ष का समाधान अचेतन मानसिक रचनाओं द्वारा निम्नलिखित रूप रं होता है
(i) दमन (Repression ) : दमन एक मानसिक रचना है जो व्यक्ति के ऐसे अनुभव और विचार को जोड़ सके जो अहं (Ego) को आघात पहुंचाते हैं और उन्हें अचेतन मन में भेज दे। इसीलिए जब प्रेरणात्मक संघर्ष की तीव्रता अधिक बढ़ जाती है। और चेतन रूप से इसका समाधान नहीं होता है तो ऐसे संघर्ष की उपेक्षा दमन क्रिया द्वारा कर दी जाती है। उदाहरणस्वरूप, ऐसे जिन व्यक्तियों से हमें घृणा है उनका नाम हम भूल जाते हैं। इसका कारण यह है कि दमन की क्रिया इसे हमारे मन के अचेतन स्तर में भेज देती है।
(ii) रूपान्तर (Conversion) : कभी-कभी मानसिक संघर्ष शारीरिक लक्षणों में या अयोग्यताओं में बदल जाता है। इसे ही रूपान्तर कहा जाता है। संघर्ष के अचेतन समाधान के इस तरीके का नाम फ्रायड ने "Conversion Hysteria" दिया है। फ्रायड का कहना है कि व्यक्ति के प्रेरणात्मक संघर्ष की तीव्रता जब बहुत अधिक बढ़ जाती है तो इसका समाधान शारीरिक अयोग्यता (Physical inability) द्वारा हो जाता है और व्यक्ति अपनी शारीरिक अयोग्यता के कारण उस संघर्षमय परिस्थिति से बच जाता हैं। उदाहरणस्वरूप देखा जाता है कि ऐसे विद्यार्थी, जिनकी तैयारी पूरी तरह परीक्षा के .लिए नहीं हुई रहती है, वे ठीक परीक्षा के समय बीमार पड़ जाते हैं। लेकिन परीक्षा समाप्त होने के बाद फिर वे अपनी साधारण अवस्था में लौट आते हैं।
(iii) प्रक्षेपण (Projection) : प्रक्षेपण भी एक अचेतन मानसिक रचना है जिसके द्वारा प्रेरणात्मक संघर्ष का समाधान होता है। उदाहरणस्वरूप जब एक विद्यार्थी परीक्षा में असफल होता है, तो वह असफलता के पीछे अपनी कमजोरी और त्रुटि पर ध्यान नहीं देता है। असफलता के कारण उसके मन में संघर्ष होता है, तो इसका समाधान वह अपना दोष और अपनी अयोग्यता को दूसरों के सिर पर मढ़ कर ढूंढ निकालता है। इसी को प्रक्षेपण की क्रिया कहा जाता है। विद्यार्थी कहता है कि परीक्षा में वह इसलिए असफल हुआ कि प्रश्न बहुत कड़े थे, या वे सिलेबस से बाहर के थे या कॉपियों का जाँचक कड़ा था, वा बेईमान था, या उसका दुश्मन था। इस तरह से वह अपना दोष या तो विश्वविद्यालय की अव्यवस्था पर या जाँचक की तथाकथित खामियों पर मढ़ता है। इस सम्बन्ध में कुछ मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि आप मुझे दूसरों के विषय में बतावें, मैं यह बता दूंगा कि आप क्या हैं (You tell me about others I can tell what you are)!
(iv) उदात्तीकरण (Sublimation) : जब व्यक्ति को अपने प्रेम में असफलता होती है, तो वह तज्जनित संपों को किसी ऐसे सामाजिक स्वीकृत लक्ष्य में बदलने की कोशिश करता है कि दूसरे लोग इसे स्वीकार करें। जैसे, एक अविवाहित महिला, माँ बनने की अपनी इच्छा को, अनाथालय के बच्चों की सेवा में बदल देती है। इस प्रकार से, उदात्तीकरण एक ऐसी अचेतन मानसिक क्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने संघर्ष का समाधान किसी वैज्ञानिक रचनात्मक कला, या चित्रकारी में बदल देता है।
(v) परिशोधन (Rationalization) : परिशोधन भी एक मानसिक रचना है जिसके द्वारा व्यक्ति प्रेरणात्मक संघर्ष का समाधान करता है। जैसे, जब किसी व्यक्ति को जीवन में असफलता होती हैं, तो अपना संघर्ष कम करने या मिटाने के लिए यह उस लक्ष्य में दोष देखता है जिसकी प्राप्ति उसे न हो सकी। इसीलिए कहा जाता है कि जब लोमड़ी को अंगूर नहीं मिल सके तो उसने यह कह कर संतोष किया कि 'खट्टे अंगूर) कौन खाय' कुछ मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि परिशोधन (Rationalization ) मानसिक संघर्ष को बहलाने का एक माध्यम है ( Rationalization is kidding oneself, since it cases the sting of failure)!
(vi) प्रतिक्रिया निर्माण (Reaction formation) : जब व्यक्ति किसी को प्यार करने में सफल नहीं होता है, तो वह कभी-कभी उससे घृणा करने लगता है। इसी तरह से प्यार या किसी अन्य इच्छा को विकृत रूप में प्रकट करने वाली अचेतन मानसिक क्रिया को प्रतिक्रिया निर्माण कहा जाता है।
(vii) क्षतिपूर्ति (Compensation) : जब व्यक्ति अपने जीवन के किसी एक क्षेत्र में असफल होता है, तो वह उसकी क्षतिपूर्ति जीवन के किसी दूसरे क्षेत्र में सफलता प्राप्त करके, करना चाहता है। यदि कोई विद्यार्थी क्लास में पढ़ने-लिखने में कमजोर होता है तो वह अपने संघर्ष को कम करने के लिए खेल-कूद में नाम पैदा करना चाहता है। इस तरह से वह पढ़ने में अपनी असफलता के संघर्ष से छुटकारा पाता है।
इसी तरह और भी कई अन्य अचेतन समाधान हैं जिनके द्वारा व्यक्ति अपने मानसिक संघर्षों को, जो प्रेरणात्मक संघर्ष कहलाते हैं, कम करता है। इन अन्य अचेतन समाधानों में कुछ तो ऐसे हैं जो व्यक्ति की सामान्य अवस्था को बनाये रखते हैं और उसे कुछ विशेष क्षति नहीं होती, परन्तु दूसरी ओर कुछ ऐसे भी हैं जो उसे असामान्य (Abnormal) बना देते हैं। उदाहरण के लिए मानसिक संघर्षों को कम करने के लिए व्यक्ति शराबी, जुआरी, वेश्यागामी आदि बन जाता है, जो निश्चित रूप से उस व्यक्ति को धीरे धीरे आसान्य बना देते हैं। चाहे कुछ भी हो व्यक्ति मानसिक संघर्ष की अवस्था में अधिक देर तक नहीं रह सकता अतः वह चेतन या अवेतन किसी न किसी रूप में इसका समाधान ढूंढ ही लेता है!
प्रश्न: व्यक्तित्व क्या है? इसके जैविक निर्धारकों की व्याख्या कीजिए।
अथवा
व्यक्तित्व के जैविक या आनुवांशिक निर्धारकों की विवेचना कीजिए। (Discuss the biological factors or determinants of personality.)
अथवा
व्यक्ति के निर्धारण में शारीरिक कारकों का क्या हाथ है? (What is the role of biological factors in the determination of personality.)
उत्तर : व्यक्तित्व के निर्माण में आनुवांशिक तथा वातावरणीय निर्धारकों का मुख्य हाथ रहता है। आनुवांशिक निर्धारकों से यहाँ उन निर्धारकों का अर्थ लगाया जाता है जिन पर व्यक्ति का अपना सचेष्ट नियंत्रण नहीं रहता है, बल्कि एक स्वाभाविक ढंग से वह अपने आप चलता है। आनुवांशिक तत्त्व जन्मजात होते हैं। आनुवांशिक तत्त्वों द्वारा व्यक्ति के निम्नलिखित अंगों का मौलिक विकास होता है 1. शरी, 2. अंतःस्रावी ग्रन्थियाँ, 3. स्नायु मण्डल, 4. बुद्धि!
1. शरीर (Physique) : शरीर का अर्थ शारीरिक गठन से लिया जाता है। हम : इसका अर्थ शारीरिक स्वास्थ्य के रूप में भी ले सकते हैं। पहले व्यक्तित्व का अर्थ शारीरिक रचना, रूपरंग आदि के ही आधार पर लगाया जाता था। आज भी लोग सुन्दर डील-डौल वाले व्यक्ति के अच्छे व्यक्तित्व या सुन्दर व्यक्तित्व का व्यक्ति कहते हैं।
इसमें संदेह नहीं कि व्यक्ति की शारीरिक बनावट, रूपरंग, डील-डौल आदि से व्यक्तित्व का प्रथम परिचय मिलता है। पर इस सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों ने अनेक अध्ययन किये हैं और बताया है कि व्यक्ति की शारीरिक रचना और डील-डौल का प्रभाव उसके चरित्र और स्वभाव (Temperament) पर भी पड़ता है। इस सम्बन्ध में क्रेशर शेल्डन नामक दो विद्वानों का अध्ययन उल्लेखनीय है। उन्होंने बताया है कि व्यक्ति की शारीरिक बनावट का प्रभाव उसके स्वभाव पर पड़ता है। लेकिन इन विचारों का आलोचना की गयी है और उनके अध्ययन को मनोवैज्ञानिक नहीं माना गया है।
फिर भी कुछ अध्ययनों द्वारा यह पाया गया है कि शारीरिक गठन का प्रभाव व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण पर किसी न किसी रूप में अवश्य पड़ता है। देखा जाता है कि जिन बच्चों में शारीरिक दोष पाये जाते हैं, जैसे जो लंगड़े लूले, बौने आदि होते हैं, उनका समाज में उचित समायोजन नहीं हो पाता है। इन शारीरिक त्रुटियों के चलते उनके अन्दर हीनता की भावना आ जाती है। इस तरह से हम देखते हैं कि शारीरिक गठन का प्रभाव 'व्यक्तित्व निर्माण पर पड़ता है।
2. अन्तःस्त्रावी ग्रन्थियाँ (Endocrine giands) :
जिन ग्रन्थियों से लाव (Secretion) निकलकर रक्त से मिलकर शरीर के अन्दर रह जाता है उन्हें अंतःस्रावी ग्रन्थियाँ कहते हैं। जो स्त्राव इन ग्रंथियों से निकलकर रक्त में मिलता है वह हारमोन (Hormone) कहलाता है। इन्हीं हारमोनों के रक्त में मिलने की मात्रा की भिन्नता के कारण शारीरिक और मानसिक परिवर्तन होते हैं जिससे व्यक्ति का व्यक्तित्व प्रभावित होता है। अन्तःस्रावी ग्रन्थियों की क्रियावाही से भी व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इन ग्रन्थियों में पाँच मुख्य हैं!
(i) कण्ठ ग्रन्थि : इसका स्थान कण्ठ के नीचे होता है इससे निकले स्राव को थॉइरॉक्सिन (Thyroxin) कहा जाता है। इस लाव का शारीरिक और मानसिक विकास में काफी महत्व होता है। व्यक्ति की शारीरिक रचना के डील-डौल पर भी इसका काफी प्रभाव पड़ता है।
(ii) उपकण्ठ ग्रन्थियाँ (Parathyroid glands) : ये चार छोटी-छोटी ग्रन्थियाँ होती हैं जिनका स्थान कण्ठग्रंथि के आस-पास होता है और इनके साथ का प्रभाव केन्द्रीय स्नायु मण्डल (Central nervous system) और मस्तिष्क की कार्यवाहियों पर पड़ता है।
(iii) पीयूष ग्रन्थि (Pituitory gland) : इस ग्रन्थि को सभी ग्रन्थियों की रानी या मास्टरग्लैंड कहा जाता है क्योंकि इसके द्वारा बहुत सी ग्रन्थियों का संचालन होता है। इसके ही स्राव के कारण व्यक्ति में यौन अंगों का भी विकास होता है।
(iv) एडिलन ग्रन्थियाँ (Adrenal glands) : ये ग्रन्थियाँ गुर्दे (Kidney) के ऊपर होती हैं और इनके स्राव को ऐड्रिनैलिन
(Adrenaline) कहते हैं, जिसका प्रभाव रक्तचाप, हृदय गति, साँस की गति आदि पर पड़ता है।
(v) यौन ग्रन्थियाँ (Gonad glands) : ये ग्रन्थियाँ पुरुषों और स्त्रियों में अलग-अलग स्थान पर पायी जाती हैं। पुरुष और स्त्री के गुणों पर इन ग्रन्थियों का विशेष प्रभाव पड़ता है।
इस तरह से हम देखते हैं कि अन्तःस्रावी ग्रन्थियों का प्रभाव व्यक्तित्व पर पड़ता है, क्योंकि अन्तःस्रावी ग्रन्थियों से अगर स्राव कम या अधिक निकलता है तो व्यक्ति का व्यक्तित्व असंतुलित हो जाता है। फ्रीमैन तथा कुछ दूसरे मनोवैज्ञानिकों ने इस विचार का खण्डन करते हुए कहा है कि इन ग्रन्थियों की कार्यवाहियों का प्रभाव व्यक्ति के सभी शील गुणों को निर्देशित नहीं करता है।
3. स्नायु मण्डल (Nervous system) : हमलोग जानते हैं कि मस्तिष्क व्यक्ति के सभी व्यवहारों और क्रियाओं को संचालित करता है। सभी परिस्थितियों का ज्ञान प्राप्त करने और समझने के लिए मस्तिष्क का ही सहारा लेना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है कि स्नायु मण्डल व्यक्तित्व का एक प्रमुख निर्धारक है जिसका स्नायु मंडल जितना ही अधिक जटिल होता है उसका उतना ही अधिक प्रभाव उसके व्यक्तित्व पर पड़ता है। केम्फ ने व्यक्तित्व के सम्बन्ध में स्नायु मण्डल पर विशेष जोर दिया है, क्योंकि इसी के द्वारा व्यक्ति वातावरण और परिस्थितियों से समायोजन करता है। इसलिए स्नायुमण्डल का प्रभाव व्यक्तित्व निर्माण पर विशेष रूप से पड़ता है।
4. बुद्धि (Intelligence) : कुछ मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि को एक जन्मजात योग्यता माना है। आधुनिक युग में मानसिक परीक्षण के आधार पर बुद्धि-लब्धि के अनुपात का पता लगाया जाता है। इसी परीक्षण के आधार पर ऐसे व्यक्ति को जिनकी बुद्धि-लब्धि औसत से कम रहती है, जड़ (Idiot) कहते हैं। ऐसे व्यक्ति वातावरण और परिस्थिति का अर्थ नहीं समझते हैं। इसलिये वे वातावरण और परिस्थिति में समायोजन करने में असमर्थ रहते हैं। इस तरह से हम कह सकते हैं कि बुद्धि का प्रभाव, एक निर्धारक के रूप में व्यक्तित्व निर्माण को प्रभावित करते हैं।
प्रश्न : प्रेरणात्मक संघर्ष से आप क्या समझते हैं? प्रेरणात्मक संघर्ष के समाधान की कौन-कौन सी विधियाँ हैं? (What do you mean by the conflict of Motives? What are the different methods of resolving the
conflict of Motives.)
उत्तर : प्रेरणात्मक संघर्ष जब दो या दो से अधिक प्रेरकों की उत्पत्ति एक साथ ही होती है और उन प्रेरकों की शक्ति एक दूसरे के बराबर होती है तो व्यक्ति निर्णय लेने में असमर्थ हो जाता है वह किससे प्रभावित हो। दूसरे शब्दों में, जंब बराबर शक्तियों के प्रेरक एक साथ सन्तुष्टि चाहते हैं, तो उस समय व्यक्ति की निर्णय शक्ति क्षीण पड़ जाती है। वह समझ नहीं पाता है कि किस प्रेरक को सन्तुष्ट करे ऐसी स्थिति में मन में एक संघर्ष उत्पन्न होता है कि किस प्रेरक को प्राथमिकता दी जाय। मन की ऐसी अवस्था को प्रेरणात्मक संघर्ष (Conflict of Motive) कहा जाता है। उदाहरणस्वरूप, यदि किसी विद्यार्थी के विश्वविद्यालय की वार्षिक परीक्षा के समय ही उसकी गाँ की गम्भीर बीमारी का तार आ जाता है, तो ऐसी अवस्था में उसके सामने दो बराबर शक्ति की समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। एक तरफ माँ की गम्भीर बीमारी और दूसरी तरफ विश्वविद्यालय की वार्षिक परीक्षा इन दोनों में से वह किसी की भी उपेक्षा सरल और साधारण ढंग से नहीं कर सकता है। परिणामस्वरूप यह संघर्ष की अवस्था में उलझ जाता है और यह सोचने लग जाता है कि क्या करू? परीक्षा छोहूँ और मर जाऊँ या परीक्षा दूँ और माँ की अवहेलना करू? इसी संघर्ष को अवस्था को प्रेरणात्मक संघर्ष की अवस्था कहा जाता है।
प्रेरणात्मक संघर्ष के समाधान का तरीका : जब व्यक्ति संघर्षमय स्थिति में रहता है, तो उसका मानसिक संतुलन अव्यवस्थित हो जाता है। लेकिन व्यक्ति की मानसिक रचनाएँ कुछ इस प्रकार की होती हैं कि वह अधिक देर तक संघर्ष की स्थिति में नहीं रह सकता हैं।
प्रेरणात्मक संघर्ष के समाधान के दो तरीके हैं :
1. चेतनै समाधान (Cónscious resolution).
2. अचेतन समाधन (Unçonscious resolution)
1.चेतन समाधान : हमारे कुछ प्रेरणा संघर्ष ऐसे होते हैं जिनका समाधान चेतन रूप से मिल जाता है। चेतन समाधान में निम्नलिखित बातें होती हैं --
(1) विमर्श : जब हमारे मन में दो प्रेरकों की उत्पत्ति एक साथ होती है, तो उस समय हम इस बात पर ध्यान देते हैं कि इनमें से कौन से प्रेरक की संतुष्टि अधिक आवश्यक है और किसकी कम जब हम समझ-बूझकर इनसे से किसी एक की उपेक्षा करते हैं, तो उसको विमर्श कहा जाता है। जैसे, परीक्षा के समय यदि कोई बहुत अच्छा फिल्म आ जाता है, तो हम विचार-विमर्श करके फिल्म देखने की इच्छा पर काबू पा जाते हैं और अपने पढ़ने के अनमोल समय पर ध्यान देते हैं।
(ii) तर्क-वितर्क : जब हमें प्रेरणात्मक संघर्ष के समाधान में कठिनाई होती है, तो हम तर्क-वितर्क करके उसका समाधान खोज निकालते हैं।
(iii) दूसरों से सूचनाएँ प्राप्त करना : जब हमारे प्रेरणात्मक संघर्ष का समाधान हमें स्वयं नहीं मिलता है, तो हम दूसरों से इस समस्या से सम्बन्धित बातों पर सूचनाएँ प्राप्त करते हैं और इस तरह से हम अपने संघर्ष के समाधान का रास्ता खोज निकालते हैं।
(iv) संकल्प : जब व्यक्ति को किसी निर्णयविशेष पर पहुँचने के बाद भी, संतोष नहीं होता है तो वह अपने निर्णय पर फिर से विचार करता है।
जो उसका अंतिम निर्णय होता है, उसी को संकल्प कहा जाता है। जैसे, अकबर बहुत ही कम आयु में हिन्दुस्तान के सिंहासन पर बैठ गया। राज्य की बागडोर प्राप्त करते ही वह चारों तरफ से मुसीबतों से घिर गया। इनसे निपटारा पाने के लिए उसने अनेक उपाय सोचे। अन्त में उसने युद्ध करने की ठानी और कहा कि “तख्त (सिंहासन) या तख्ता" अर्थात् लड़ाई में जीतेंगे तो सिंहासन पर बैठेंगे और हारेंगे तो जमीन के भीतर तख्ते से पाट कर सुला दिये जायेंगे। ऐसे निर्णय को संकल्प (Resolution) कहा जाता है।
2. अचेतन समाधान : जब संघर्ष और व्यक्ति को अपने प्रेरणात्मक संघर्ष का समाधान चेतन रूप से नहीं हो पाता है तो उस समय अचेतन मानसिक क्रियाएँ काम करने लगती हैं और व्यक्ति को संघर्ष की स्थिति से बचा देती हैं। मनुष्य के प्रेरणात्मक संघर्ष का समाधान अचेतन मानसिक रचनाओं द्वारा निम्नलिखित रूप रं होता है
(i) दमन (Repression ) : दमन एक मानसिक रचना है जो व्यक्ति के ऐसे अनुभव और विचार को जोड़ सके जो अहं (Ego) को आघात पहुंचाते हैं और उन्हें अचेतन मन में भेज दे। इसीलिए जब प्रेरणात्मक संघर्ष की तीव्रता अधिक बढ़ जाती है। और चेतन रूप से इसका समाधान नहीं होता है तो ऐसे संघर्ष की उपेक्षा दमन क्रिया द्वारा कर दी जाती है। उदाहरणस्वरूप, ऐसे जिन व्यक्तियों से हमें घृणा है उनका नाम हम भूल जाते हैं। इसका कारण यह है कि दमन की क्रिया इसे हमारे मन के अचेतन स्तर में भेज देती है।
(ii) रूपान्तर (Conversion) : कभी-कभी मानसिक संघर्ष शारीरिक लक्षणों में या अयोग्यताओं में बदल जाता है। इसे ही रूपान्तर कहा जाता है। संघर्ष के अचेतन समाधान के इस तरीके का नाम फ्रायड ने "Conversion Hysteria" दिया है। फ्रायड का कहना है कि व्यक्ति के प्रेरणात्मक संघर्ष की तीव्रता जब बहुत अधिक बढ़ जाती है तो इसका समाधान शारीरिक अयोग्यता (Physical inability) द्वारा हो जाता है और व्यक्ति अपनी शारीरिक अयोग्यता के कारण उस संघर्षमय परिस्थिति से बच जाता हैं। उदाहरणस्वरूप देखा जाता है कि ऐसे विद्यार्थी, जिनकी तैयारी पूरी तरह परीक्षा के .लिए नहीं हुई रहती है, वे ठीक परीक्षा के समय बीमार पड़ जाते हैं। लेकिन परीक्षा समाप्त होने के बाद फिर वे अपनी साधारण अवस्था में लौट आते हैं।
(iii) प्रक्षेपण (Projection) : प्रक्षेपण भी एक अचेतन मानसिक रचना है जिसके द्वारा प्रेरणात्मक संघर्ष का समाधान होता है। उदाहरणस्वरूप जब एक विद्यार्थी परीक्षा में असफल होता है, तो वह असफलता के पीछे अपनी कमजोरी और त्रुटि पर ध्यान नहीं देता है। असफलता के कारण उसके मन में संघर्ष होता है, तो इसका समाधान वह अपना दोष और अपनी अयोग्यता को दूसरों के सिर पर मढ़ कर ढूंढ निकालता है। इसी को प्रक्षेपण की क्रिया कहा जाता है। विद्यार्थी कहता है कि परीक्षा में वह इसलिए असफल हुआ कि प्रश्न बहुत कड़े थे, या वे सिलेबस से बाहर के थे या कॉपियों का जाँचक कड़ा था, वा बेईमान था, या उसका दुश्मन था। इस तरह से वह अपना दोष या तो विश्वविद्यालय की अव्यवस्था पर या जाँचक की तथाकथित खामियों पर मढ़ता है। इस सम्बन्ध में कुछ मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि आप मुझे दूसरों के विषय में बतावें, मैं यह बता दूंगा कि आप क्या हैं (You tell me about others I can tell what you are)!
(iv) उदात्तीकरण (Sublimation) : जब व्यक्ति को अपने प्रेम में असफलता होती है, तो वह तज्जनित संपों को किसी ऐसे सामाजिक स्वीकृत लक्ष्य में बदलने की कोशिश करता है कि दूसरे लोग इसे स्वीकार करें। जैसे, एक अविवाहित महिला, माँ बनने की अपनी इच्छा को, अनाथालय के बच्चों की सेवा में बदल देती है। इस प्रकार से, उदात्तीकरण एक ऐसी अचेतन मानसिक क्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने संघर्ष का समाधान किसी वैज्ञानिक रचनात्मक कला, या चित्रकारी में बदल देता है।
(v) परिशोधन (Rationalization) : परिशोधन भी एक मानसिक रचना है जिसके द्वारा व्यक्ति प्रेरणात्मक संघर्ष का समाधान करता है। जैसे, जब किसी व्यक्ति को जीवन में असफलता होती हैं, तो अपना संघर्ष कम करने या मिटाने के लिए यह उस लक्ष्य में दोष देखता है जिसकी प्राप्ति उसे न हो सकी। इसीलिए कहा जाता है कि जब लोमड़ी को अंगूर नहीं मिल सके तो उसने यह कह कर संतोष किया कि 'खट्टे अंगूर) कौन खाय' कुछ मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि परिशोधन (Rationalization ) मानसिक संघर्ष को बहलाने का एक माध्यम है ( Rationalization is kidding oneself, since it cases the sting of failure)!
(vi) प्रतिक्रिया निर्माण (Reaction formation) : जब व्यक्ति किसी को प्यार करने में सफल नहीं होता है, तो वह कभी-कभी उससे घृणा करने लगता है। इसी तरह से प्यार या किसी अन्य इच्छा को विकृत रूप में प्रकट करने वाली अचेतन मानसिक क्रिया को प्रतिक्रिया निर्माण कहा जाता है।
(vii) क्षतिपूर्ति (Compensation) : जब व्यक्ति अपने जीवन के किसी एक क्षेत्र में असफल होता है, तो वह उसकी क्षतिपूर्ति जीवन के किसी दूसरे क्षेत्र में सफलता प्राप्त करके, करना चाहता है। यदि कोई विद्यार्थी क्लास में पढ़ने-लिखने में कमजोर होता है तो वह अपने संघर्ष को कम करने के लिए खेल-कूद में नाम पैदा करना चाहता है। इस तरह से वह पढ़ने में अपनी असफलता के संघर्ष से छुटकारा पाता है।
इसी तरह और भी कई अन्य अचेतन समाधान हैं जिनके द्वारा व्यक्ति अपने मानसिक संघर्षों को, जो प्रेरणात्मक संघर्ष कहलाते हैं, कम करता है। इन अन्य अचेतन समाधानों में कुछ तो ऐसे हैं जो व्यक्ति की सामान्य अवस्था को बनाये रखते हैं और उसे कुछ विशेष क्षति नहीं होती, परन्तु दूसरी ओर कुछ ऐसे भी हैं जो उसे असामान्य (Abnormal) बना देते हैं। उदाहरण के लिए मानसिक संघर्षों को कम करने के लिए व्यक्ति शराबी, जुआरी, वेश्यागामी आदि बन जाता है, जो निश्चित रूप से उस व्यक्ति को धीरे धीरे आसान्य बना देते हैं। चाहे कुछ भी हो व्यक्ति मानसिक संघर्ष की अवस्था में अधिक देर तक नहीं रह सकता अतः वह चेतन या अवेतन किसी न किसी रूप में इसका समाधान ढूंढ ही लेता है!
प्रश्न: व्यक्तित्व क्या है? इसके जैविक निर्धारकों की व्याख्या कीजिए।
अथवा
व्यक्तित्व के जैविक या आनुवांशिक निर्धारकों की विवेचना कीजिए। (Discuss the biological factors or determinants of personality.)
अथवा
व्यक्ति के निर्धारण में शारीरिक कारकों का क्या हाथ है? (What is the role of biological factors in the determination of personality.)
उत्तर : व्यक्तित्व के निर्माण में आनुवांशिक तथा वातावरणीय निर्धारकों का मुख्य हाथ रहता है। आनुवांशिक निर्धारकों से यहाँ उन निर्धारकों का अर्थ लगाया जाता है जिन पर व्यक्ति का अपना सचेष्ट नियंत्रण नहीं रहता है, बल्कि एक स्वाभाविक ढंग से वह अपने आप चलता है। आनुवांशिक तत्त्व जन्मजात होते हैं। आनुवांशिक तत्त्वों द्वारा व्यक्ति के निम्नलिखित अंगों का मौलिक विकास होता है 1. शरी, 2. अंतःस्रावी ग्रन्थियाँ, 3. स्नायु मण्डल, 4. बुद्धि!
1. शरीर (Physique) : शरीर का अर्थ शारीरिक गठन से लिया जाता है। हम : इसका अर्थ शारीरिक स्वास्थ्य के रूप में भी ले सकते हैं। पहले व्यक्तित्व का अर्थ शारीरिक रचना, रूपरंग आदि के ही आधार पर लगाया जाता था। आज भी लोग सुन्दर डील-डौल वाले व्यक्ति के अच्छे व्यक्तित्व या सुन्दर व्यक्तित्व का व्यक्ति कहते हैं।
इसमें संदेह नहीं कि व्यक्ति की शारीरिक बनावट, रूपरंग, डील-डौल आदि से व्यक्तित्व का प्रथम परिचय मिलता है। पर इस सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों ने अनेक अध्ययन किये हैं और बताया है कि व्यक्ति की शारीरिक रचना और डील-डौल का प्रभाव उसके चरित्र और स्वभाव (Temperament) पर भी पड़ता है। इस सम्बन्ध में क्रेशर शेल्डन नामक दो विद्वानों का अध्ययन उल्लेखनीय है। उन्होंने बताया है कि व्यक्ति की शारीरिक बनावट का प्रभाव उसके स्वभाव पर पड़ता है। लेकिन इन विचारों का आलोचना की गयी है और उनके अध्ययन को मनोवैज्ञानिक नहीं माना गया है।
फिर भी कुछ अध्ययनों द्वारा यह पाया गया है कि शारीरिक गठन का प्रभाव व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण पर किसी न किसी रूप में अवश्य पड़ता है। देखा जाता है कि जिन बच्चों में शारीरिक दोष पाये जाते हैं, जैसे जो लंगड़े लूले, बौने आदि होते हैं, उनका समाज में उचित समायोजन नहीं हो पाता है। इन शारीरिक त्रुटियों के चलते उनके अन्दर हीनता की भावना आ जाती है। इस तरह से हम देखते हैं कि शारीरिक गठन का प्रभाव 'व्यक्तित्व निर्माण पर पड़ता है।
2. अन्तःस्त्रावी ग्रन्थियाँ (Endocrine giands) :
जिन ग्रन्थियों से लाव (Secretion) निकलकर रक्त से मिलकर शरीर के अन्दर रह जाता है उन्हें अंतःस्रावी ग्रन्थियाँ कहते हैं। जो स्त्राव इन ग्रंथियों से निकलकर रक्त में मिलता है वह हारमोन (Hormone) कहलाता है। इन्हीं हारमोनों के रक्त में मिलने की मात्रा की भिन्नता के कारण शारीरिक और मानसिक परिवर्तन होते हैं जिससे व्यक्ति का व्यक्तित्व प्रभावित होता है। अन्तःस्रावी ग्रन्थियों की क्रियावाही से भी व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इन ग्रन्थियों में पाँच मुख्य हैं!
(i) कण्ठ ग्रन्थि : इसका स्थान कण्ठ के नीचे होता है इससे निकले स्राव को थॉइरॉक्सिन (Thyroxin) कहा जाता है। इस लाव का शारीरिक और मानसिक विकास में काफी महत्व होता है। व्यक्ति की शारीरिक रचना के डील-डौल पर भी इसका काफी प्रभाव पड़ता है।
(ii) उपकण्ठ ग्रन्थियाँ (Parathyroid glands) : ये चार छोटी-छोटी ग्रन्थियाँ होती हैं जिनका स्थान कण्ठग्रंथि के आस-पास होता है और इनके साथ का प्रभाव केन्द्रीय स्नायु मण्डल (Central nervous system) और मस्तिष्क की कार्यवाहियों पर पड़ता है।
(iii) पीयूष ग्रन्थि (Pituitory gland) : इस ग्रन्थि को सभी ग्रन्थियों की रानी या मास्टरग्लैंड कहा जाता है क्योंकि इसके द्वारा बहुत सी ग्रन्थियों का संचालन होता है। इसके ही स्राव के कारण व्यक्ति में यौन अंगों का भी विकास होता है।
(iv) एडिलन ग्रन्थियाँ (Adrenal glands) : ये ग्रन्थियाँ गुर्दे (Kidney) के ऊपर होती हैं और इनके स्राव को ऐड्रिनैलिन
(Adrenaline) कहते हैं, जिसका प्रभाव रक्तचाप, हृदय गति, साँस की गति आदि पर पड़ता है।
(v) यौन ग्रन्थियाँ (Gonad glands) : ये ग्रन्थियाँ पुरुषों और स्त्रियों में अलग-अलग स्थान पर पायी जाती हैं। पुरुष और स्त्री के गुणों पर इन ग्रन्थियों का विशेष प्रभाव पड़ता है।
इस तरह से हम देखते हैं कि अन्तःस्रावी ग्रन्थियों का प्रभाव व्यक्तित्व पर पड़ता है, क्योंकि अन्तःस्रावी ग्रन्थियों से अगर स्राव कम या अधिक निकलता है तो व्यक्ति का व्यक्तित्व असंतुलित हो जाता है। फ्रीमैन तथा कुछ दूसरे मनोवैज्ञानिकों ने इस विचार का खण्डन करते हुए कहा है कि इन ग्रन्थियों की कार्यवाहियों का प्रभाव व्यक्ति के सभी शील गुणों को निर्देशित नहीं करता है।
3. स्नायु मण्डल (Nervous system) : हमलोग जानते हैं कि मस्तिष्क व्यक्ति के सभी व्यवहारों और क्रियाओं को संचालित करता है। सभी परिस्थितियों का ज्ञान प्राप्त करने और समझने के लिए मस्तिष्क का ही सहारा लेना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है कि स्नायु मण्डल व्यक्तित्व का एक प्रमुख निर्धारक है जिसका स्नायु मंडल जितना ही अधिक जटिल होता है उसका उतना ही अधिक प्रभाव उसके व्यक्तित्व पर पड़ता है। केम्फ ने व्यक्तित्व के सम्बन्ध में स्नायु मण्डल पर विशेष जोर दिया है, क्योंकि इसी के द्वारा व्यक्ति वातावरण और परिस्थितियों से समायोजन करता है। इसलिए स्नायुमण्डल का प्रभाव व्यक्तित्व निर्माण पर विशेष रूप से पड़ता है।
4. बुद्धि (Intelligence) : कुछ मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि को एक जन्मजात योग्यता माना है। आधुनिक युग में मानसिक परीक्षण के आधार पर बुद्धि-लब्धि के अनुपात का पता लगाया जाता है। इसी परीक्षण के आधार पर ऐसे व्यक्ति को जिनकी बुद्धि-लब्धि औसत से कम रहती है, जड़ (Idiot) कहते हैं। ऐसे व्यक्ति वातावरण और परिस्थिति का अर्थ नहीं समझते हैं। इसलिये वे वातावरण और परिस्थिति में समायोजन करने में असमर्थ रहते हैं। इस तरह से हम कह सकते हैं कि बुद्धि का प्रभाव, एक निर्धारक के रूप में व्यक्तित्व निर्माण को प्रभावित करते हैं।
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